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________________ [C] केवलदर्शनज्ञानमयान् केवलसुखस्वभावान् । जिनवरान् वन्दे भक्त्या यैः प्रकाशिता भावाः || ६ || आगे निरंजन, निराकार, निःशरीर सिद्धपरमेष्ठीको नमस्कार करता हूँ(केवलदर्शनज्ञानमयाः) जो केवलदर्शन और केवलज्ञानमयी हैं, (केवल सुखस्वभावाः) तथा जिनका केवलसुख ही स्वभाव है और ( यै:.) जिन्होंने (भावाः) जीवादिक सकल पदार्थ (प्रकाशिताः) प्रकाशित किये, उनको मैं ( भक्त्या ) भक्ति से ( वंदे ) नमस्कार करता है । विशेष - केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टयस्वरूप जो परमात्मतत्त्व है, उसके यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान और अनुभव, इन स्वरूप अभेदरत्नत्रय वह जिनका स्वभाव है, और सुख-दुःख, जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, सबमें समान भाव होने से उत्पन्न हुई वीतरागनिर्विकल्प परमसमाधि उसके कहनेवाले जिनराजके उपदेशको पाकर अनन्तचतुष्टयरूप हुए, तथा जिन्होंने यथार्थ जीवादि पदार्थों का स्वरूप प्रकाशित किया तथा जो कर्मका अभाव है वह वही केवलज्ञानादि अनन्तगुणरूप मोक्ष और जो शुद्धात्माका यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान- आचरणरूप अभेदरत्नत्रय वही हुआ मोक्षमार्ग ऐसे मोक्ष और मोक्षमार्गको भी प्रगट किया, उनको मैं नमस्कार करता हूं । इस व्याख्यान में अरहन्तदेवके केवलज्ञानादि गुणस्वरूप जो शुद्धात्मस्वरूप है, वही आराधने योग्य है, यह भावार्थ जानना ||६॥ अथानन्तरं भेदाभेदरत्नत्रयाराधकानाचार्योपाध्यायसाधून्नमस्करोमि - जे परमप्पु यिंति मुखि परम-समाहि धरेवि । परमादह कारण तिरिण वि ते वि णवेवि ॥७॥ ये परमात्मानं पश्यन्ति मुनयः परमसमाधि धृत्वा । परमानन्दस्य कारणेन त्रीनपि तानपि नत्वा ||७|| ---- : आगे भेदाभेदरत्नत्रयके आराधक जो आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ — ( ये मुनयः) जो मुनि ( परमसमाधि ) परमसमाधिको (धृत्वा ) धारण करके सम्यग्ज्ञानकर (परमात्मानं ) परमात्माको ( पश्यन्ति) देखते हैं । किसलिए ( . परमानंदस्य कारणेन ) रागादि विकल्प रहित परमसमाधिसे उत्पन्न हुए परम सुख के
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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