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________________ श्री संभव जिन स्तुति २६ मानेगें उनके मत में पदार्थ ठहर ही न सकेगा तब उससे काम ही क्या होगा। यहि सोना हम बाजार से लायें और वह नाश होगया तब हमारा सोना लाना ही व्यर्थ होगा। दोनों ही एकान्त पंक्ष मानने से बिलकुल काम नहीं चलेगा। दोनों को ही मानने से सर्व जगत की अवस्था सिद्ध होगी। यदि प्रात्मा को सर्वथा नित्य माने तो वह फिर एकसा ही रहेगा, वह कभी संसार से मुक्त नहीं हो सकता और जो आत्मा को क्षणिक माने तो वह बंधने वाला नष्ट हो हो जायगा तब बंध से मुक्ति किसकी होगी। बिना नित्य व अनित्य दोनों रूप माने बंध व मोक्ष व उनका उपाय व फल आदि कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकते । यदि जगत में मात्र एक ब्रह्म ही माना जाय व अनेक जीव मान लिये जावें, परन्तु जड़ या अन्य पदार्थ कोई न माना जावे तो सर्व जीव या एक ब्रह्म सदा शुद्ध अपने स्वभाव में मिलेंगे तब संसार व मोक्ष को व उनके उपायों की सर्व कल्पना मिथ्या हो जावेगी। और यदि मात्र जड हो जड होवे, चेतन कोई न होने तो भी बंध मोक्षादि बन नहीं सकता, तब तो किसी को कोई ज्ञान ही नहीं हो सकता कि मैं मलीन हूँ व मुझे शुद्ध होना चाहिये । इसलिये मानना यह पड़ेगा कि महा सत् की अपेक्षा पदार्थ एक है। परन्तु भिन्न २ सत् का अपेक्षा पदार्थ अनेक हैं। जो प्रात्मा को सर्वथा शुद्ध मानते हैं उनके मत में भी बंध व मोक्ष की चर्चा ध्यर्थ है तथा जो आत्मा को सर्वथा अशुद्ध ही मानते हैं, उनके मत में भी मोक्ष होने की कल्पना व्यर्थ है। जैन सिद्धान्त कहता है कि यह समारी जीव निश्चयनयसे या द्रव्य के स्वभाव की दृष्टि से बिलकुल शुद्ध है तथापि कर्मों के संयोग की अपेक्षा अशुद्ध है। सर्वथा एक बात मानने से कोई भी व्यवस्था धर्म को नहीं हो सकती है । जैसी वस्तु अनेक धर्म या स्वभाव वाली है वैसा ही कथन जैन सिद्धान्त में है । जब जीव और फर्म पुद्गलों को जानेगे और दोनों में परिणमन शक्ति मानेगे व विमाग रूप होने को भी शक्ति मानेंगे तब ही यह सम्भव है कि जीवों के राग द्वषादि भावों के निमित्त से पुदगलों का कर्म रूपबंध होगा तथा जीवों के वीतराग विज्ञानमय भावों के निमित्त से ही कर्म पुद्गलों का जीव से छूटना होगा । सर्वथा एक बात को मानना और दूसरी बात को न मानना किसी भी तरह बस्तु के स्वभाव को सिद्ध नहीं कर सकता । प्राप्त मीमांसा में स्वयं स्वामी कहते हैं कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकान्तनहरक्त पु नाच स्वपरवैरिपु ॥ - भावार्थ-जो एक ही धर्म को मानते हैं अर्थात् जिनका अाग्रह है कि एक प्रत । ब्रह्म ही है व मात्र जड़ ही है, व जीव नित्य ही है या अनित्य ही है, शुद्ध हो है या प्रशुद्ध ही है, इत्यादि उनके मत में शुम अशुभ भावों का होना व उनसे कर्मों का बंध जाना या
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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