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________________ २० .. स्वयंभू स्तोत्र टीका रूप झलकता है परन्तु वह वीतरागता व आत्मानुभवकी ही तरफ ले. जानेवाला है। ज्ञानीजन स्वात्मीक भावना के ही लिये स्तवन करते हैं। क्योंकि निश्चनयसे श्रीजिनेन्द्र में और प्रात्मा में कोई भेद नहीं है। श्री योगेन्द्राचार्य योगसार में कहते हैंसुद्धप्पा अरु जिणवरइं भेउ म किमपि वियाणि । मोक्खइ कारण जोईया णिच्छइ एउ विवाणी ॥२०॥ जो जिणु सो अप्पा मुणहु इह सिद्धतहु सारु । इउ जाणेविण जोयइहु छडहु मायाचारु ।।२१॥ अर्थात्-शुद्ध पात्मा और जिनेन्द्र में कोई भेद मत जानो यह ज्ञान निश्चय से हे ! योगी मोक्षका कारण है । जैन सिद्धांत का यह सार है कि जैसा जिन है वैसा ही यह प्रात्मा है, हे योगी ऐसा जानकर माया छोड़। जो परमप्पा सो जि हउं जो हउ सो परमप्पु । हउ जाणेविणु जोइप्रा मण्ण म करहु वियप्पु ॥२२॥ भावार्थ-जो परमात्मा है सो ही मैं हूँ, जो मैं हूं सो ही परमात्मा है । हे योगी ! ऐसा जानकर स्वात्मा का अनुभव कर और अधिक विचार न कर । - यहां टीकाकार ने जिनश्रियंको एक पद मानकर जिनकी लक्ष्मी ऐसा अर्थ किया है जबकि जिनः श्रियं ऐसा पाठ लेने से जिनः श्री अजितनाथ का विशेषरण मानके हमने अर्थ किया है। मालिनी छन्द निज ब्रह्म रमानी, मित्र शत्रू समानी। ले ज्ञान कृपानो, रोषादि दोष हानी ।। लहि मातम लक्ष्मी, निजवशी जीतकर्मा । भगवन् अजितेश, दीजिये श्री स्वशर्मा ॥१०॥ (३) श्री संभवजिनस्तुतिः । त्वं शम्भवः संभवतर्षरोगः संतप्यमानस्य जनस्य लोके । प्रासीरिहाकस्मिऽऽक एव वैद्यो वैद्योयथाऽनाथरुजां प्रशान्त्यै ॥११॥ अन्वयार्थ-श्री समन्तभद्राचार्य श्री संभवनाथ स्वामी को अपने मन के सामने रख के इस तरह स्तुति करते हैं कि (त्वं) श्राप (शम्भवः) भव्य जीवों को सुख के कारण हो तथा (सम्भवतर्षरोगैः संतप्यमानस्य जनस्य) संसार सम्बन्धी विषय भोग की तृष्णा रूपी रोगों से पीड़ित मानव के लिये ( इह लोके ) इस लोक में ग्राप (आकस्मिकः एव वैद्यः ) बिना किसी फलको चाहने वाले आकस्मिक ही वैद्य (प्रासीः) हो यथा जस
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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