SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वयंभू स्तोत्र टीका यहां पर प्राचार्य ने सूर्य का हष्टांत देकर यही प्रगट किया है कि अरहंत भगवान बिलकुल इच्छा नहीं करते कि किसी का अज्ञान मिटे व किसी को मोक्षमार्ग मिले तथापि ऐसा कुछ वस्तु स्वभाव है कि उनकी धारणी खिर जाती है। और वह श्रोताओं के कानों में उनही की भाषा में जिसे वे समझते हैं ऐसी पड़ती है कि वे परम तृप्त हो जाते हैं और अपना अज्ञान मिटाके सम्यक्त्वी या सम्यग्ज्ञानी हो जाते हैं। प्रभु का अरहंतपना उनके लिये तो हितकर है ही। परन्तु दूसरों के लिये भी स्वयं ही उदासीनपने ऐसा हितकर होता है कि उनका भी परम कल्याण हो जाता है, वे भी उसी पथ के अनुयायी होकर अरहंत हो जाते हैं या मोक्षमार्ग का साधन मुनि या श्रावक या सम्यक्त्व भावमें करने लग जाते हैं । धन्य है श्री अजितनाथ भगवान की महिमा, जिसका गुणगान वाणी से हो नहीं सकता। श्री अरहंत भगवान वीतराग होने पर भी किस तरह दूसरों के उपकार व पपकार में कारण पड़ जाते हैं इस बातको पात्र केशरी स्तोत्र में इस तरह बताया है ददास्यनुपमं सुखं स्तुतिपरेऽवतुष्यन्नपि । क्षिपस्य कुपितोपि च ध्र वमसूयकान्दुर्गतौ । न चे ! परमेष्ठिता तव विरुध्यते यद्भवान् । न कुप्यति न तुष्यति प्रकृतिमाश्रितो मध्यमाम् ।।८।। भावार्थ- हे भगवान् ! जो आपकी स्तुति करते हैं उन पर प्राप राजी न होते हुए भी अनुपम सुख देते हैं अर्थात् वे स्वयं प्रात्मा में लय होकर प्रात्मानंद प्राप्त कर लेते हैं। तथा जो आपके साथ दुष रखते हैं अर्थात प्रापको नहीं पहचान कर द्वषी मोही देवादि की भक्ति में लीन हैं व आपकी निन्दा करते हैं उनपर आप क्रोध नहीं करते हैं तो भी वे दुर्गति में चले जाते हैं । तो भी हे ईश ! आपके अहंत परमेष्ठीपने में कोई विरोध नहीं पाता है। क्योंकि आप न तो द्वष करते हैं न राग करते हैं, आप तो वीतराग भावमें ही लीन हैं। मालिनी छन्द। जिम सूर्य प्रकाशे, मेघदल को हटाकर । कमल बन प्रफुल्लै, सब उदासी घटाकर । तिम मुनिवर प्रगटे. दिव्य वाणी छटाकर । भविगण प्राशय गत, मल कलंक मिटाकर ।" उत्थानिका-भगवान ने प्रकाशमान होकर क्या कियायेन प्रणीतं पृथु धर्मतीर्थ ज्येष्ठं जनाः प्राप्य जयन्ति दुःखम् । गाङ्ग हदं चन्दनपंकशीतं गजप्रवेका इव धर्मतप्ताः ॥ ६ ॥ अन्वयार्थ-(येन) जिस श्री अजितनाथ तीर्थकर देवने (पृथु) महान् प्रर्थात् सर्व
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy