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________________ श्री आदिनाथ स्तुति नैराग्य होगया तब वे गह से ना राज्यपाट आदि से नैराग्यमान होकर त्यागने का भान करते हुए। इस श्लोक में इतना निवेचन इसीलिये स्वामी समंतभद्र ने किया है कि जब तक बाहरी व्रत नियम प्रतिज्ञा धारण के योग्य भीतर से कषाय न घटे-इच्छा न टले नहीं तक बाहरी नियम प्रतिज्ञा या त्याग करना उचित नहीं हैं। कहा है-"ज्यों ज्यों तव घटे कषाया, त्यों त्यों जिन त्याग बताया।" धर्म का पालन गृहस्थ में रहते हुए भी हो सकता है । यह बात श्री ऋषभदेव के जीवन चरित्र से झलकती है । परन्तु पूर्ण मोक्ष मार्ग साधु . पद में ही सध सकता है इसलिये उनकोसाधु पद भी धारना पडा था न तपस्या भी करनी पडी थी। गृहस्थ में रहकर एक क्षत्री किस प्रकार नीति से राज्य करता है, प्रजा को संतोषित रखता है,यह बात श्री ऋषभदेव के गही जीवन से शिक्षा रूप मिलती है। प्रभु : इतने उदासीन थे व विचारशील थे कि उन्होंने जब तक केवलज्ञान प्राप्त किया तब तक न गृही अगस्था में, न त्याग अवस्था में दूसरों को धर्म का उपदेश किया, न ने बाहरी धर्म क्रिया का साधन करते थे । मात्र अन्तरङ्ग प्रात्मानन्द के निचार में मगन रहते थे। सिद्ध . स्वरूप का ही नित्य ध्यान किया करते थे। सिद्ध के समान अपनी प्रात्मा में विचार करते रहते थे। गीता छन्द-- सो प्रजापति हो प्रथम जिसने, प्रजा को उपदेशिया । असि कृषि प्रादी फर्म से, जीवन उपाय बता दिया ।। फिर तत्त्वज्ञानी परम विद, अद्भुत उदय धरिने । संसार भोग ममत्व टालो.साध संयम घारने ॥२॥ उत्थानिका--भगवान को वैराग्य होने के बाद उन्होंने क्या कियाविहाय यः सागरवारिवाससं वधूमिवेमां वसुधा-वधू सतीम् । .. मुमुक्षुरिक्षनाकुकुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवनवाज सहिष्णुरच्युतः ॥३॥ ... अन्वयार्थ--(यः) जो ऋषभदेव वैराग्यवान हुए थे गे (मुमुक्षुः) संसार से पार होना चाहते थे, (इक्ष्वाकुकुलादिः) इक्ष्वाकु वंश में आदि राजा थे (आत्मवान्) अपने इन्द्रियों को वश करके आत्मा के स्वरूप में तिष्ठने वाले थे, (प्रभुः) स्वतन्त्र थे, (सहिष्णुः) परोपहों को सहने के लिये शक्तिमान थे; (अच्युतः) व दुःसह परीषह का क्लेश पड़ने पर भी अपनी प्रतिज्ञा में लिये हुए व्रतों से डिगने वाले न थे-ऐसे महात्मा ने (सागरवारिवारासं) समुद्र पर्यन्त वस्त्रवाली ( सतीम् ) अपने पास होने वाली व दूसरे से न भोगी हुई ऐसी (इमां वसुधावधूम) इस पृथ्वी रूपी महिला को ( ववम् इव ) स्त्री के समान (विहाय) त्याग करके (प्रवव्राज) मुनि दीक्षा धारण करली । ___ भावार्थ-इस श्लोक में यह बताया गया है कि जिस प्रभु ने मुनि दीक्षा धारण
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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