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________________ २८८ ] परमात्मप्रकाश मुनि हैं, उनके (मनसि) मनमें (दिव्ययोगः) द्वितीय शुक्लध्यानरूप वीतराग निर्विकल्पसमाधिरूप भास रहा है, (मोक्षदः) और मोक्षका देनेवाला है। (केवलः कोऽपि बोधः) जिसका केवलज्ञान स्वभाव है, ऐसी अपूर्व ज्ञानज्योति (शिवस्वरूपः) सदा कल्याणरूप है। (लोके) लोकमें (विषयसुखरतानां) शिवस्वरूप अनन्त परमात्माकी भावनासे उत्पन्न जो परमानन्द अतीन्द्रियसुख उससे विपरीत जो पांच इन्द्रियोंके विषय उनमें जो आसक्त हैं, उनको (यः हि) जो परमात्मतत्त्व (दुर्लभः) महा दुर्लभ है । भावार्थ-इस लोकमें विषयी जीव जिसको नहीं पा सकते, ऐसा वह परमात्मतत्त्व जयवंत होवे ॥२१४॥ . इस प्रकार "परमात्मप्रकाश" ग्रन्थमें पहले 'ने जाया झाणग्गियए' इत्यादि एकसौ तेबीस दोहे तीन प्रक्षेपकों सहित ऐसे १२६ दोहोंमें पहला अधिकार समाप्त हुआ। एकसौ चौदह दोहे तथा ५ प्रक्षेपक सहित ११६ दोहोंमें दूसरा महाधिकार कहा । और 'पर जाणंतु वि' इत्यादि एकसौ सात दोहोंमें तीसरा महाधिकार कहा। प्रक्षेपक और अन्तके दो छन्द उन सहित तीनसौ पैंतालीस दोहोंमें परमात्मप्रकाशका व्याख्यान "ब्रह्मदेवकृत टीका सहित" समाप्त हुआ।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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