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________________ [ ४ ] शक्तिरूप तो पहले ही था, लेकिन व्यक्तिरूप सिद्धपर्याय पाने से हुआ । शुद्ध द्रव्याथिकनयकर सभी जीव सदा शुद्ध ही हैं। ऐसा ही द्रव्यसंग्रह में कहा है, "सव्वे शुद्धाहु सुद्धणया" अर्थात् शुद्ध नयकर सभी जीव शक्तिरूप शुद्ध हैं और पर्यायाथिकनयसे व्यक्तिकर शुद्ध हुए। किस कारणसे ? ध्यानाग्निना अर्थात् ध्यानरूपी अग्निकर कर्मरूपी कलंकोंको भस्म किया, तब सिद्ध परमात्मा हुए । वह ध्यान कौनसा है ? आगमकी अपेक्षा तो वीतराग निर्विकल्प शुक्लध्यान है और अध्यात्मकी अपेक्षा वीतराग निर्विकल्प रूपातीत ध्यान है। तथा दूसरी जगह भी कहा है-"पदस्थं" इत्यादि, उसका अर्थ यह है, कि णमोकारमंत्र आदिका जो ध्यान है, वह पदस्थ कहलाता है, पिंड (शरीर) में ठहरा हआ जो निज आत्मा है, उसका चितवन वह पिंडस्थ है, सर्व चिद्र प (सकल परमात्मा) जो अरहन्तदेव उनका ध्यान वह रूपस्थ है, और निरंजन (सिद्ध भगवान्) का ध्यान रूपातीत कहा जाता है । वस्तुके स्वभावसे विचारा जावे, तो शुद्ध आत्माका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमई जो निर्विकल्प समाधि है, उससे उत्पन्न हुआ वीतराग परमानंद समरसी भाव सुखरसका आस्वाद वही जिसका स्वरूप है, ऐसा ध्यान का लक्षण जानना चाहिए । इसी ध्यानके प्रभावसे कर्मरूपी मैल वही हुआ कलंक, उनको भस्मकर सिद्ध हुए। कर्म-कलंक अर्थात् द्रव्यकर्म भावकर्म इनमें से जो पुद्गलपिंडरूप ज्ञानावरणादि आठ कर्म वे द्रव्यकर्म हैं, और रागादिक संकल्प-विकल्प परिणाम भावकर्म कहे जाते हैं। यहां भावकर्मका दहन अशुद्ध निश्चय नय कर हुआ, तथा द्रव्य कर्मका दहन असद्भूत अनुपचरितव्यवहारनयकर हुआ और शुद्ध निश्चयकर तो जीवके बंध मोक्ष दोनों ही नहीं है। इसप्रकार कर्मरूपमलोंको भस्मकर जो भगवान हुए, वे कैसे हैं ? वे भगवान् सिद्धपरमेष्ठी नित्य निरंजन ज्ञानमई हैं । यहांपर नित्य जो विशेषण किया है, वह एकान्तवादी बौद्ध जो कि आत्माको नित्य नहीं मानता क्षणिक मानता है, उसके समझानेके लिये है । द्रव्याथिकनयकर आत्माको नित्य कहा है, टंकोत्कोर्ण अर्थात् टाँकीकासा घडया सुघट ज्ञायक एकस्वभाव परम द्रव्य है । ऐसा निश्चय कराने के लिये नित्यपनेका निरूपण किया है । इसके बाद निरंजनपनेका कथन करते हैं । जो नैयायिकमती हैं वे ऐसा कहते हैं "सौ कल्पकाल चले जानेपर जगत् शून्य हो जाता है और सब जीव उस समय मुक्त हो जाते हैं तव सदाशिवको जगत्के करने की चिंता होती है। उसके बाद जो मुक्त हुए थे, उन सबके कर्मरूप अंजनका संयोग करके संसारमें पुनः डाल देता है",
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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