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________________ परमात्मप्रकाशः [ २६५. (मया) मैं (कर्म) कर्मको (उदयं प्रानीय) उदयमें लाकर (भोक्तव्यं भवति) भोगने चाहता था, (तत्) वह कर्म (स्वयं आगतं) आप ही आ गया, (मया क्षपितं) इससे मैं शान्त चित्तसे फल सहन कर क्षय करू, (स कश्चित्) यह कोई (परं लाभः) महान् ही लाभ हुआ। . भावार्थ-जो महामुनि मुक्तिके अधिकारी हैं, उदय में वे नहीं आये हुए कर्मों __ को परम आत्म-ज्ञानको भावनाके बलसे उदयमें लाकर उसका फल भोगकर शीघ्र निर्जरा कर देते हैं। और जो वे पूर्वकर्म विना उपायके सहज ही वाईस परीषह तथा उपसर्गके वशसे उदयमें आये हों, तो विषाद न करना बहुत लाभ समझना। मन में यह मानना कि हम तो उदीरणासे इन कर्मोको उदयमें लाकर क्षय करते, परन्तु ये __ सहज ही उदयमें आये, यह तो बड़ा ही लाभ है। जैसे कोई बड़ा व्यापारी अपने ऊपरका कर्ज लोगोंका बुला-बुलाके देता है, यदि कोई बिना बुलाये सहज ही लेने आया हो, तो बड़ा ही लाभ है। उसी तरह कोई महापुरुप महान् दुर्वर तप करके कर्मोको उदयमें लाके क्षय करते हैं, लेकिन वे कर्म अपने स्वयमेव उदयमें आये हैं, तो इनके समान दूसरा क्या है, ऐसा संतोष धारणकर ज्ञानीजन उदयमें आये हुए कर्मोको भोगते हैं, परन्तु राग-द्वेष नहीं करते ।।१८३।। - अथ इदानीं पुरुपवचनं सोढुं न याति तदा निर्विकल्पात्मतत्त्वभावना कर्तव्येति प्रतिपादयति णिठुर-वयणु सुणेवि जिय जइ मणि सहण ण जाइ। तो लहु भावहि वंभु परु जिं मणु झत्ति विलाइ ॥१८॥ निष्ठुरवचनं श्रुत्वा जीव यदि मनसि सोढुन याति । ततो लघु भावय ब्रह्म परं येन मनो झटिति विलीयते ॥१४॥ आगे यह कहते हैं कि जो कोई कर्कश (कठोर) वचन कहे, और यह न कह सकता हो तो अपने कषायभाव रोकनेके लिये निर्विकल्प मात्म-तत्त्वकी भावना करनी चाहिए-(जीव) हे जीव, (निष्ठुरवचनं श्रुत्वा) जो कोई अविवेको किसीको कठोर वचन कहे, उसको सुनकर (यदि) जो (न सोयाति) न सह सके, (ततः) तो कपाय दूर करनेके लिये (परं ब्रह्म) परमानन्दस्वरूप इस देहमें विराजमान परमब्रह्मका (मनसि) मन में (लघु) शोघ्र (भावय) ध्यान करो । जो ब्रह्म अनन्तनानादि
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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