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________________ २६० ] परमात्मप्रकाश उसके नीचे जैसा डंक लगाओ, वैसा ही भासता है। ऐसा जानकर आत्माका सय जानना चाहिये । जो शुद्धात्मपदकी प्राप्तिके चाहने वाले हैं, उनको यही योग्य है, कि समस्त रागादिक विकल्पोंके समूहको छोड़कर आत्माके शुद्धरूपको ध्यावें और विकारों. पर दृष्टि न रक्खें ।।१७३॥ अथ चतुष्पादिकां कथयतिएहु जु अप्पा सो परमप्पा कम्म-विसेसें जायउ जप्पा । जामईजाणइ अप्पें अप्पा तामई सो जि देउ परमप्पा ॥१७॥ एष यः आत्मा स परमात्मा कर्मविशेषेण जातः जाप्यः । यदा जानाति आत्मना आत्मानं तदा स एव देवः परमात्मा ।।१७४।। आगे चतुष्पदछन्दमें आत्माके शुद्ध स्वरूपको कहते हैं-(एष य आत्मा) गाः प्रत्यक्षीभूत स्वसंवेदन ज्ञानकर प्रत्यक्ष जो आत्मा (स परमात्मा) वही शुद्धनिश्चयनकर अनन्त चतुष्टयस्वरूप क्षुदाधि अठारह दोष रहित निर्दोष परमात्मा है, वह व्यवहार नयकर (कर्मविशेषेण) अनादि कर्मवन्धके विशेषसे (जात्यः जातः) पराधीन हुमा दूगर का जाप करता है; परन्तु (यदा) जिस समय (आत्मना) वीतराग निर्विकल्प स्वरावे. दनज्ञानकर (आत्मानं) अपनेको (जानाति) जानता है, (तदा) उस समय (स एव) यह आत्मा ही (परमात्मा) परमात्मा देव है । भावार्थ-निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हआ जो परम आनन्द जगई अनुभवमें क्रीडा करनेसे देव कहा जाता है, यही याराधने योग्य है । जो आत्मदेव शुद्ध निश्चयनयकर भगवान् केवलीके समान है। ऐसा परमात्मदेव शक्तिरूपसे देह में है, औ दहमें न होवे, तो केवलज्ञान के समय कैसे प्रगट होवे ।।१७४।। अथ तमेवार्थ व्यक्तीकरोति जो परमप्पा गागामउ सो हडं देउ अणंतु । जो हउ सो परमप्पु परु पहर भावि भिंतु ॥१७५।। यः परमात्मा ज्ञानमय : स अह देवः अनन्तः । यः अहम परमात्मा पर: इयं भावय निन्तिः ।।१७५॥ आगेनी अर्थको प्रगटपने में हर करते हैं--(यः परमात्मा) को (जानमयः) धानन्याप है, (म अहं) में ही है, जोकि (अनंतः वः) rahati
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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