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________________ २५० ] मोह-जालका लेश भी न रहे, और निर्विकल्प शुद्धात्म भावनासे विपरीत नाना विकल्पजालरूपी चंचल मन वह अस्त हो जावे । हे स्वामी, निर्दोष परमाराध्य जो परमाला उससे अन्य जो मिथ्याती देव उनसे मेरा क्या मतलब है ? ऐसा शिष्यने श्रीगुरूसे प्रश्न किया उसका एक दोहा सूत्र कहा ||१६१ ॥ यथोत्तरम् - परमात्मप्रकाश णास-विणिग्गउ सासडा अंवरि जेत्थु विलाइ | प्रत्थवणहं जाइ ॥ १६२॥ तु मोडति तहिं म नासाविनिर्गतः श्वास: अम्बरे यत्र विलीयते । त्रुट्यति मोहः झटिति तत्र मनः अस्तं याति ॥ १६२॥ आगे श्रीगुरू उत्तर देते हैं - ( नासाविनिर्गतः श्वासः ) नाकसे निकला जो श्वास वह ( यत्र ) जिस (अंबरे) निर्विकल्पसमाधि में (विलीयते) मिल जावे, (तत्र ) उसी जगह (मोहः) मोह ( झटिति ) शीघ्र (त्रुटयति ) नष्ट हो जाता है, (मनः ) और मन ( अस्तं याति ) स्थिर हो जाता है । भावार्थ - नासिका से निकले जो श्वासोच्छ्वास हैं, वे अम्बर अर्थात् आकाश के समान निर्मल मिथ्यात्व विकल्प-जाल रहित शुद्ध भावों में विलीन हो जाते हैं, अर्थात् तत्त्वस्वरूप परमानन्दकर पूर्ण निर्विकल्पसमाधि में स्थिर चित्त हो जाता है, तब स्वामीच्छ्वासरूप पवन रुक जाती है, नासिका के द्वारको छोड़कर तालुवा पी द्वारमें होके निकले, तब मोह टूटता है, उसी समय मोहके उदयकर उत्पन्न हुए रागादि विकल्प- जाल नाश हो जाते हैं, बाह्य ज्ञानसे शून्य निर्विकल्पसमाधि में विकल्प आधारभूत जो मन वह अस्त हो जाता है, अर्थात् निजस्वभाव में मनको चंचलता नहीं रहती । जब यह जीव रागादि परभावोंसे शुन्य निर्विकल्पसमात्रिमें होता है, तब यह श्वासोच्छ्वासरूप पवन नासिका के दोनों छिद्रोंको छोड़कर स्वयमेव अवक तालुवाके बालकी अनीके आठवें भाग प्रमाण अति सूक्ष्म छिद्र (दश द्वारमें) होस् बारीक निकलती है, नासा छेदको छोड़कर तालुरंभ में (छेद में) होकर निकलती है। और पातंजनिमतवाने agar aare nind हैं, वह ठीक नहीं क्योंकि वायुधारणा होती है, और बाहै, वह मोह के कारण मोह है |
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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