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________________ २४६ ] परमात्मप्रकाश विषयकषायैः मनःसलिलं नेत्र क्षुभ्यति यस्य । आत्मा निर्मलो भवति लघु वत्स प्रत्यक्षोऽपि तस्य ॥ १५६ ॥ आगे आत्माकी प्राप्ति के लिये चित्तको स्थिर करता, ऐसा परम उपदेश श्रीगुर दिखलाते हैं - (यस्य) जिसका (मनःसलिलं ) मनरूपी जल ( विषयकषायैः ) विषयकषायरूप प्रचण्ड पवन से (नैव क्षुभ्यते) नहीं चलायमान होता है, ( तस्य ) उसी भव्य जीवकी ( आत्मा ) आत्मा ( वत्स ) हे बच्चे, (निर्मलो भवति ) निर्मल होती है, और (लघु) शीघ्र हो ( प्रत्यक्षोऽपि ) प्रत्यक्ष हो जाती है । भावार्थ - ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मरूपी जलचर मगर-मच्छादि जलके जीव उनसे भरा जो संसार-सागर उसमें विषयकषायरूप प्रचण्ड पवन जो कि शुद्धात्मतत्त्वसे सदा पराङमुख हैं, उसी प्रचण्ड पवनसे जिसका चित्त चलायमान नहीं हुआ, उसीका आत्मा निर्मल होता है । आत्मा रत्नके समान है, अनादिकालका अज्ञानरूपी पाताल में पड़ा है, सो रागादि मलके छोड़नेसे शीघ्र ही निर्मल हो जाता है, हे बच्चे, आत्मा उन भव्य जीवोंका निर्मल होता है, और प्रत्यक्ष उनको आत्माका दर्शन होता है । परमकला जो आत्माकी अनुभूति वही हुई निश्रयदृष्टि उससे आत्मस्वरूपका अवलोकन होता है | आत्मा स्वसंवेदनज्ञान करके ही ग्रहण करने योग्य है । जिसका मन विषय से चंचल न हो, उसीको आत्माका दर्शन होता है ।। १५६ || अथ अप्पा परहं ण मेलविउ मगु मारिवि सहस त्ति । सो वढ जोए किं करड़ जासु एही सत्ति ॥ १५७ ॥ आत्मा परस्य न मेलितः मनो मारयित्वा सहसेति । स वत्स योगेन किं करोति यस्य न ईदृशी शक्तिः || १५७॥ आगे यह कहते हैं, कि जिसने शीघ्र हो मनको वशकर आत्माको परमात्मा से नहीं मिलाया, जिसमें ऐसी शक्ति नहीं है, वह योगसे क्या कर सकता है ? कुछ भी नहीं कर सकता - - ( सहसा मनः मारयित्वा ) जिसने शीघ्र हो मनको वश में करने ( श्रात्मा ) यह आत्मा ( परस्य न मेलितः) परमात्मामें नहीं मिलाया, (वत्स ) है ि (यस्य) जिसकी (ईदृशी) ऐसी (शक्तिः) शक्ति (न) नहीं है, (सः) वह (योगेन) से (किं करोति) क्या कर सकता है ?
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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