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________________ [ २४१ भोगके लिये नहीं है, इससे योगका साधनकर अविनाशी पदको सिद्धि करनी । ऐसा कहा भी है, कि इस क्षणभंगुर शरीर से स्थिरपद मोक्षकी सिद्धि करनी चाहिये, यह शरीर मलिन है, इससे निर्मल वीतरागकी सिद्धि करना, और यह शरीर ज्ञानादि गुणोंसे रहित है, इसके निमित्तसे सारभूत ज्ञानादि गुण सिद्ध करने योग्य हैं । इस शरीर से तप संयमादिका साधन होता है, और तप संयमादि क्रियासे सारभूत गुणों की सिद्धि होती है । जिस क्रियासे ऐसे गुण सिद्ध हों, वह क्रिया क्यों नहीं करनी, अवश्य करनी चाहिये || १४८ ॥ अथ--- जेहउ जज्जरु गरय- घर तेहउ जोइय काउ | res तिरु पूरियउ किम किज्जइ अराउ ॥१४६॥ परमात्मप्रकाश यथा जर्जरं नरकगृहं तथा योगिन् कायः । नरके निरन्तरं पूरितं किं क्रियते अनुरागः || १४६।। आगे शरीरको अशुचि दिखलाकर ममत्व छुड़ाते हैं - ( योगिन् ) हे योगी, (यथा) जैसा (जर्जरं) सैंकड़ों छेदोंवाला ( नरकगृहं) नरक-घर है, (तथा) वैसा यह (कायः) शरीर ( नरके ) मल-मूत्रादिसे (निरंतर) हमेशा (पूरितं) भरा हुआ है । ऐसे शरीर से (अनुरागः) प्रीति (किं क्रियते ) कैसे की जावे ? किसी तरह भी यह प्रीतिके योग्य नहीं है । भावार्थ - जैसे नरकका घर अति जीर्ण जिसके सैंकड़ों छिद्र हैं, वैसे यह कायरूपी घर साक्षात् नरकका मन्दिर है, नव द्वारोंसे अशुचि वस्तु झरती है | और आत्माराम जन्म मरणादि छिद्र आदि दोष रहित हैं, भगवान् शुद्धात्मा भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्ममलसे रहित हैं, यह शरीर मल-मूत्रादि नरकसे भरा हुआ है। ऐसा शरीरका और जीवका भेद जानकर देहसे ममता छोड़के वीतराग निर्विकल्प समाधिमें ठहरके निरन्तर भावना करनी चाहिये || १४६ ॥ अथ WHERE AND RESTORANAN TON . दुक्खई पावई असुचियई तिहुयणि सलई लेवि । एहिं देहु विणिम्मियउ विहिणा वइरु मुणेवि ।। १५० ।।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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