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________________ परमात्मप्रकाश.. २३६ परमात्मप्रकाशः . [ २३६ कुरु शिवसंगम एकं परं यत्र प्राप्यते सुखम् । योगिन् अन्यं मा चिन्तय त्वं येन न रूभ्यते मोक्षः ।।१४६।। . आगे इसी अर्थको फिर भी दूसरी तरह प्रगट करते हैं- (योगिन्) हे योगी हंस, (हवं) तू (एक शिवसंगम) एक निज शुद्धात्माकी ही भावना (परं) केवल (कुरु) कर, (यत्र) जिसमें कि (सुखं प्राप्येत) अतीन्द्रिय सुख पावे, (अन्यं मा) अन्य कुछ भी मत (चितय) चितवन कर, (येन) जिससे कि (मोक्षः न लभ्यते) मोक्ष न मिले। भावार्थ-हे जीव, तू शुद्ध अखण्ड स्वभाव निज शुद्धात्माका चिन्तवन कर, यदि तू शिवसंग करेगा तो अतीन्द्रिय सुख पावेगा । जो अनन्त सुखको प्राप्त हुए वे केवल आत्म-ज्ञानसे ही प्राप्त हुए, दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसलिये हे योगी, तू अन्य कुछ भी चिन्तवन मत कर, परके चिन्तवनसे अव्याबाध अनन्त सुखरूप मोक्षको नहीं पावेगा । इसलिये निजस्वरूपका हो चिन्तन कर ॥१४६॥ अथ भेदाभेदरत्नत्रयभावनारहितं मनुष्यजन्म निस्सारमिति निश्चिनोतिवलि किउ माणुस-जम्मडा देक्खंतहं पर सारु । जइ उट्ठभइ तो कुहइ अह डझइ तो छारु ॥१४७।। बलिः क्रियते मनुष्यजन्म पश्चतां परं सारम् । यदि अवष्टभ्यते ततः क्वथति अथ दह्यते तहि क्षारः ।।१४७।। आगे भेदाभेदरत्नत्रयको भावनासे रहित जीवका मनुष्य-जन्म निष्फल है, ऐसा कहते हैं--(मनुष्य जन्म) इस मनुष्य-जन्मको (बलिः क्रियते) मस्तकके ऊपर वार डालो, जो कि (पश्यतां परं सारं) देखने में केवल सार दोखता है, (यदि अवष्टभ्यते) जो इस मनुष्य-देहको भूमिमें गाड़ दिया जावे, (ततः) तो (क्वथति) सड़कर दुर्गन्धरूप परिणमे, (अथ) और जो (दह्यते) जलाइये (तर्हि) तो (क्षारः) राख हो जाता है। भावार्थ-इस मनुष्य-देहको व्यवहारनयसे बाहरसे देखो तो सार मालम होता है, यदि विचार करो तो कुछ भी सार नहीं है। तिर्यञ्चोंके शरीरमें तो कुछ सार भी दिखता है, जैसे हाथीके शरीर में दांत सार है, सुरह गोके शरीरमें बाल सार हैं, इत्यादि। परन्तु मनुष्य देहमें सार नहीं है, घुनके खाये हुए गन्तेको तरह मनुष्य
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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