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________________ [ २३७ उसका समाधान - जो भाव-भक्ति इसके कभी न हुई, भाव-भक्ति: तो सम्यदृष्टि के ही होती है, और बाह्यलोकिकभक्ति इसके संसारके प्रयोजनके लिये हुई वह गिनती में नहीं । ऊपर की सब बातें निःसार (थोथी) हैं, भाव ही कारण होते हैं, सो भाव-भक्ति मिथ्यादृष्टिके नहीं होती । ज्ञानी जीव ही जिनराजके दास है, सो सम्यक्त्व बिना भाव-भक्तिके अभावसे जिनस्वामी नहीं पाये, इसमें सन्देह नहीं है । जो जिनवर - स्वामीको पाते, तो उसीके समान होते, ऊपरी लोग दिखावारूप भक्ति हुई, तो किस कामकी, यह जानना । अब श्रीजिनदेवका और सम्यग्दर्शनका स्वरूप सुनो। अनंत ज्ञानादि चतुष्टय सहित और क्षुधादि अठारह दोष रहित हैं । वे जिनस्वामी हैं, वे ही परम आराधने योग्य हैं, तथा शुद्धात्मज्ञानरूप निश्चयसम्यक्त्व ( वीतराग सम्यक्त्व ) अथवा वीतराग सर्वज्ञदेव के उपदेश हुए षट् द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, और पांच अस्तिकाय उनका श्रद्धानरूप सरग सम्यक्त्व यह निश्चय व्यवहार दो प्रकारका सम्यक्त्व है | निश्चयका नाम वीतराग है, व्यवहारका नाम सराग है । एक तो चौथे पद का यह अर्थ है, और दूसरे ऐसा "सिवसंगमु सम्मत्त " इसका अर्थ ऐसा है, कि शिव जो जिनेन्द्रदेव उनका संगम अर्थात् भाव सेवन इस जीवको नहीं हुआ, और सम्यक्त्व नहीं उत्पन्न हुआ । सम्यक्त्व होवे तो परमात्मा का भी परिचय होवे || १४३ ।। मथ शुद्धात्मसंविचिसाधकतपश्चरणप्रतिपक्षभूतं गृहवासं दूषयतिघरवासउ मा जाणि जिय दुक्किय-वासउ एहु | पासु कथंतें मंडियउ अविच स्सिन्देहु || १४४॥ परमात्मप्रकाश ---- गृहवास मा जानीहि जोव दुष्कृतवास एषः । पाशः कृतान्तेन मण्डितः अविचल : निस्सन्देहम् || १४४ || आगे शुद्धात्मज्ञानका साधक जो तपश्चरण उसके शत्रुरूपगृह वामको दोष देते - (जीव ) हे जीव, तू इसको ( गृहवास ) घर वास ( मा जानीहि ) मत जान, ( एषः ) यह ( दुष्कृतवासः ) पापका निवास स्थान है, ( कृतांतेन ) यमराजने (कालते ) अज्ञानी जीवोंके बांधने के लिये यह (पाशः मंडित: ) अनेक फांसोंसे मंडित (प्रविचलः ) बहुत मजबूत बन्दीखाना बनाया है, इसमें ( निस्सन्देहं ) सन्देह नहीं है । भावार्थ - यहां घर शब्द से मुख्यरूप स्त्री जानना, स्त्री विना गृहवास नहीं कहलाता। ऐसा ही दूसरे शास्त्रोंमें स्त्री ही घरका मूल है, भी कहा है, कि घरको
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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