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________________ परमात्मप्रकाश [२३३ (यस्य शीर्ष) जिसका सिर (खल्वाट) गंजा है, (सः) वह तो (देवेन एव) देवकर हो (मुडितः) मूडा हुआ है, वह मुण्डित नहीं कहा जा सकता। . भावार्थ- जो देखने में मनोज ऐसा इन्द्राइनिका विष-फल उसके समान ये मौजूद विषय हैं, ये वीतराग शुद्धात्मतत्त्वकी प्राप्तिरूप निश्चयधर्मस्वरूप रत्नके चोर हैं, उनको जो ज्ञानी छोड़ते हैं, उनको बलिहारी श्रीयोगीन्द्रदेव करते हैं, अर्थात् अपना गुणानुराग प्रगट करते हैं, जो वर्तमान विषयोंके प्राप्त होनेपर भी उनको छोड़ते हैं, वे महापुरुषोंकर प्रशंसा योग्य हैं, अर्थात् जिनके सम्पदा मौजूद हैं, वे सव त्यागकर वीतरागके मार्गको आराधे, वे तो सत्पुरुषोंसे सदा ही प्रशंसाके योग्य हैं, और जिसके कुछ भी तो सामग्री नहीं है, परन्तु तृष्णासे दुःखी होरहा है, अर्थात् जिसके विषय तो विद्यमान नहीं हैं, तो भी उनका अभिलाषी है, वह महानिंद्य है ।। चतुर्थकालमें तो इस क्षेत्रमें देवोंका आगमन था, उनको देखकर धर्मकी रुचि होती थी, और नानाप्रकारकी ऋद्धियोंके धारी महामुनियोंका अतिशय देखकर ज्ञान की प्राप्ति होती थी, तथा अन्य जोवोंको अवधिमनःपर्यय केवलज्ञान की उत्पत्ति देखकर सम्यक्त्वकी सिद्धि होती थी, जिनके चरणारविन्दोंको बड़े-बड़े मुकुटधारी राजा नमस्कार करते थे, ऐसे बड़े-बड़े राजाओंकर सेननोक भरत सगर राम पाण्डवादि अनेक चक्रवर्ती बलभद्र नारायण तथा मण्डलीक राजाओंको जिनधर्म में लीन देखकर भव्यजीवोंको जिनधर्मकी रुचि उपजती थी, तब परमात्म-भावनाके लिए विद्यमान विषयों का त्याग करते थे। और जबतक गृहस्थपने में रहते थे, तब तक दान-पूजादि शुभ क्रियायें करते थे, चार प्रकारके सङ्घकी सेवा करते थे । इसलिये पहले समयमें तो ज्ञानोत्पत्तिके अनेक कारण थे, ज्ञान उत्पन्न होनेका अचम्भा नहीं था । लेकिन अब इस पंचमकालमें इतनी सामग्री नहीं है। ऐसा कहा भी है. कि इस पंचमकालमें देवोंका आगमन तो बन्द हो गया है, और कोई अतिशय नहीं देखा जाता। यह काल धर्मके अतिशयसे रहित है, और केवलज्ञानको पनि रहित है, तथा हलधर, चक्रवर्ती आदि शलाकापुरुषोंसे रहित है, ऐसे दःपमकाल में जो भव्यजीव धर्मको धारण करते हैं, यती श्रावकके व्रत आचरते हैं, यह अचम्भा है। वे पुरुष धन्य हैं, सदा प्रशंसा योग्य हैं ।।१३६॥ . . अथ मनोजये कृते सतीन्द्रियजयः कृतो भवतीति प्रकटयति
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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