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________________ परमात्मप्रकाश [ २१७ करता है ? मत कर । यहाँ पर ऐसा व्याख्यान जानकर कर्मोके आस्रवसे रहित तथा रागादि विकल्प-जालोंसे रहित जो निज शुद्धात्माकी भावना वही करनी चाहिए, ऐसा तात्पर्य जानना ॥१२०॥ अथ वहिर्व्यासंगासक्तं जगत् क्षणमप्यात्मानं न चिन्तयतीति प्रतिपादयतिधंधइ पडियउ सयलु जगु कम्मई करइ अयाणु । मोक्खहं कारणु एक्कु खणु णवि चिंतइ अप्पाणु ॥१२१।। धान्धे (?) पतितं सकलं जगत् कर्माणि करोति अज्ञानि । मोक्षस्य कारणं एक क्षणं नव चिन्तयति आत्मानम् ।।१२१।। आगे बाहरके परिग्रह में लीन हए जगतके प्राणी क्षणमात्र भी आत्माका चितवन नहीं करते, ऐसा कहते हैं-(धांधे पतितं) जगत्के धन्धे में पड़ा हुआ ( सकलं जगत् ) सब जगत् (प्रज्ञानि) अज्ञानी हुआ (कर्माणि) ज्ञानावरणादि आठों कर्मोको (करोति) करता है, परन्तु (मोक्षस्य कारणं) मोक्षके कारण (आत्मानं) शुद्ध आत्माको (एक क्षणं) एक क्षण भी (नैव चितयति) नहीं चिन्तवन करता । ___ भावार्थ-भेदविज्ञानसे रहित ये मूढ प्राणी शुद्धात्माकी भावनासे पराङ मुख हैं, इसलिए शुभाशुभ कर्मोका ही बन्ध करता है, और अनन्तज्ञानादिस्वरूप मोक्षका कारण जो वोतराग परमानन्दरूप निजशुद्धात्मा उसका एकक्षण भी विचार नहीं । करता। सदा ही आर्त रौद्र ध्यान में लग रहा है ऐसा सारांश है ।।१२१।। अथ तमेवार्थ द्रढयति जोणि-लक्खई परिभमइ अप्पा दुक्खु सहंतु । पुत्त-कत्तलहिं मोहियउ जाव ण णाणु महंतु ॥१२२॥ योनिलक्षाणि परिभ्रमति आत्मा दुःखं सहमानः ।। पुत्रकलत्रैः मोहितः यावन्न ज्ञानं महत् ।।१२२।। आगे उसी बातको दृढ़ करते हैं-(यावत्) जबतक (महत् ज्ञानं न) सबसे श्रेष्ठ ज्ञान नहीं हैं, तबतक (आत्मा) यह जीव (पुत्रकलत्रैः मोहितः) पुत्र स्त्री आदिकोंसे मोहित हुआ (दुःखंसहमानः) अनेक दुःखोंको सहता हुआ (योनि लक्षारिण) . चौरासी लाख योनियोंमें (परिभ्रमति) भटकता फिरता है।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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