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________________ परमात्मप्रकाश [२०६ आगे स्थलसंख्याके सिवाय जो प्रक्षेपफ दोहे हैं, उनके द्वारा आहारक मोह निवारण करते हैं-(बीभत्सं) भयानक देहके मैलसे युक्त (दग्धमृतकसदृशं) जले हुए मुरदेके समान रूपरहित ऐसे (नग्नरूपं) वस्त्र रहित नग्नरूपको (कृत्वा) धारण करके हे साधु, तू (भिक्षायां) परके घर भिक्षाको भ्रमता हुआ उस भिक्षा (मिष्टं) स्वादयुक्त (भोजन) आहारकी (अभिलषसि) इच्छा करता है, तो तू (कि न लज्जसे) क्यों नहीं शरमाता ? यह बड़ा आश्चर्य है । भावार्थ-पराये घर भिक्षाको जाते मिष्ट आहारकी इच्छा धारण करता है, सो तुझे लाज नहीं आती ? इसलिये आहारका राग छोड़ अल्प और नीरस, आहार उत्तम कुली श्रावकके घर साधुको लेना योग्य है । मुनिको राग-भाव रहित आहार लेना चाहिये । स्वादिष्ट सुन्दर आहारका राग करना योग्य नहीं है। और श्रावकको भी यही उचित है, कि भक्ति-भावसे मुनिको निर्दोष आहार देवे, जिसमें शुभका दोष न लगे। और आहारके समय ही आहारमें मिली हुई निर्दोष औषधि दे, शास्त्रदान करे, मुनियोंके भय दूर करे, उपसर्ग निवारण करे । यही गृहस्थको योग्य है । जिस गृहस्थ ने यतीको आहार दिया, उसने तपश्चरण दिया, क्योंकि संयमका साधन शरीर है. और शरीरकी स्थिति अन्न जलसे है। आहारके ग्रहण करनेसे तपस्याकी बढ़वारी होती है । इसलिये आहारका दान तपका दान है। यह तप-संयम शुद्धात्माकी भावनारूप है, और ये अंतर बाह्य बारह प्रकारका तप शुद्धात्माकी अनुभूतिका साधक है । तप संयमका साधन दिगम्बरका शरीर है। इसलिये आहारके देनेवालेने यतीके देहकी रक्षाकी, और आहारके देनेवालेने शुद्धात्मा की प्राप्तिरूप मोक्ष दी। क्योंकि मोक्षका साधन मुनिव्रत है, और मुनिव्रतका साधन शरीर है, तथा शरीरका साधन आहार है। इस प्रकार अनेक गुणोंको उत्पन्न करतेवाला आहारादि चार प्रकारका दान उसको श्रावक भक्तिसे देता है, तो भी निश्चय व्यवहार रत्नत्रयके माराधक योगीश्वर महातपोधन आहारको ग्रहण करते हए भी राग नहीं करते हैं। राग द्वष मोहादि परिणाम निजभावके शत्रु हैं, यह सारांश हुमा । अथ जइ इच्छसि भो साहू वारह-विह-तवहलं महा-विउलं । तो मण-वयणे काए भोयण-गिद्धी विवजेसु ॥१११३३॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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