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________________ २०६ ] इस प्रकार सोलहवानीके सोनेके दृष्टान्त द्वारा केवलज्ञानादि लक्षणसे सव जीव समान हैं, इस व्याख्यानकी मुख्यतासे तेरह दोहा - सूत्र कहे । इस तरह मोक्षमार्ग, मोक्ष-फल, और मोक्ष इन तीनोंको कहनेवाले दूसरे महाधिकार में चार अन्तरस्थलोंका इकतालीस दोहोंका महास्थल समाप्त हुआ । इसमें शुद्धोपयोग, वीतरागस्वसंवेदनज्ञान, परिग्रह त्याग, और सब जीव समान हैं, ये कथन किया । परमात्मप्रकाश आगे 'पर जाणंतु वि' इत्यादि एकसौ सात दोहा पर्यन्त तीसरा महाधिकार कहते हैं, उसीमें ग्रन्थको समाप्त करते हैं - ( परममुनयः) परममुनि ( परं जानतोऽपि ) उत्कृष्ट आत्मद्रव्यको जानते हुए भी ( परसंसर्ग) परद्रव्य जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, जोकमं उसके सम्बन्धको (त्यजंति ) छोड़ देते हैं । (येन) क्योंकि ( परसंसर्गेण ) परद्रव्यके सम्बन्धसे (लक्ष्यस्य) ध्यान करने योग्य जो ( परमात्मनः ) परमपद उससे ( चलति ) चलायमान हो जाते हैं । भावार्थ- शुद्धोपयोगी मुनि वीतराग स्वसंवेदनज्ञानमें लीन हु परद्रव्यों के साथ सम्बन्ध छोड़ देते हैं । अन्दरके विकार रागादि भावकर्म और बाहर के शरीरादि ये सब परद्रव्य कहे जाते हैं । वे मुनिराज एक आत्मभाव के सिवाय सब परद्रव्यका संसर्ग ( सम्बन्ध ) छोड़ देते हैं । तथा रागी, द्वेषी, मिथ्यात्वी, असंयमी जीवोंका संबंध छोड़ देते हैं । इनके संसर्गसे परमपद जो वीतरागनित्यानन्द अमूर्त स्वभाव परमसमरसीभावरूप जो परमात्मतत्त्व ध्यावने योग्य है, उससे चलायमान हो जाते हैं, अर्थात् तीन गुप्तिरूप परमसमाधिसे रहित हो जाते हैं । यहांपर परमध्यानके घातक जो मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध परिणाम तथा रागो द्वेषी पुरुषोंका संसर्ग सर्वथा त्याग करना चाहिए यह सारांश है ||१०८ || अथ तमेव परद्रव्यसंसर्गत्यागं कथयति जो सम-भावहं वाहिरउ ति सहुं मं करि संगु । चिंता - सायरि पडहि पर अराणु वि डज्झइ अंगु ॥ १०६ ॥ यः समभावादू वाह्यः तेन सह मा कुरु संगम् । चितासागरे पतसि परं अन्यदपि दह्यते अङ्गः ॥१०६॥ आगे उन्हीं परद्रव्योंके सम्बन्धको फिर छुड़ानेका कथन करते हैं- (यः) जी कोई (समभावात् ) समभाव अर्थात् निजभावसे (बाह्य) बाह्य पदार्थ हैं, (तेन राह)
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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