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________________ १८] परमात्मप्रकाश उसका श्रीगुरु समाधान करते हैं— जो बहुत जलके घड़ों में चन्द्रमाकी किरणों की उपाधिसे जल-जातिके पुदुगल ही चन्द्रमाके आकार के परिणत हो गये हैं, लेकिन आकाशमें स्थित चन्द्रमा तो एक ही है, चन्द्रमा तो बहुत स्वरूप नहीं हो गया । उनका दृष्टान्त देते हैं । जैसे कोई देवदत्तनामा पुरुष उसके मुखकी उपाधि ( निमित्त ) से अनेक प्रकारके दर्पणोंसे शोभायमान काचका महल उसमें वे काचरूप पुद्गल ही अनेक मुखके आकारके परिणत हुए हैं, कुछ देवदत्तका मुख अनेकरूप नहीं परिणत हुआ है, मुख एक ही है । जो कदाचित् देवदत्तका मुख अनेकरूप परिणमन करे, तो दर्पण में तिष्ठते हुए मुखोंके प्रतिबिम्ब चेतन हो जावें । परन्तु चेतन नहीं होते, जड़ ही रहते हैं, उसी प्रकार एक चन्द्रमा भी अनेकरूप नहीं परिणमता । वे जलरूप पुद्गल हो चन्द्रमाके आकारमें परिणत हो जाते हैं । इसलिये ऐसा निश्चय समझना, कि जो कोई ऐसा कहते हैं, कि एक ही ब्रह्मके नानारूप दीखते हैं, यह कहना ठीक नहीं है । जीव जुदे जुड़े हैं || अथ सर्वजीवविषये समदर्शित्वं मुक्तिकारणमिति प्रकटयति-राय-दस वे परिहरिवि जे सम जीव खियंति । ते समभावि परिट्टिया लहु णिव्वाणु लहंति ॥ १००॥ रागद्वेषो द्वो परिहृत्य ये समान् जीवान् पश्यन्ति । ते समभावे प्रतिष्ठिताः लघु निर्वाणं लभन्ते ॥ १०० ॥ आगें ऐसा कहते हैं, कि सब ही जीव द्रव्यसे तो जुदे जुदे हैं, परन्तु जातिमे एक हैं, और गुणोंकर समान हैं, ऐसी धारणा करना मुक्तिका कारण है - ( ये ) जो ( रागद्व ेषी) राग और द्वेषको ( परिहृत्य ) दूर करके ( जीवाः समाः ) सब जीवोंको समान (निर्गच्छंति ) जानते हैं, (ते) वे साधु (समभावे) समभाव में ( प्रतिष्ठिताः) विराजमान (लघु) शीघ्र ही (निर्वाणं) मोक्षको (लभंते ) पाते हैं । भावार्थ- वीतराग निजानन्दस्वरूप जो निज आत्मद्रव्य उसको भावनामे विमुख जो राग द्वेष उनको छोड़कर जो महान पुरुष केवलज्ञान दर्शन लक्षणकर सब ही जीवोंको समान गिनते हैं, वे पुरुष समभावमें स्थित शीघ्र ही शिवपुरको पाते हैं । समभावका लक्षण ऐसा है, कि जीवित, मरण, लाभ, अलाभ, सुख, दुःखादि सबको समान जानें 1 जो अनन्त सिद्ध हुए और होवेंगे, यह सब समभावका प्रभाव है । सम
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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