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________________ परमात्मप्रकाश भावार्थ-परिग्रहके तीन भेदोंमें गृहस्थकी अपेक्षा चेतन परिग्रह पुत्र कलत्रादि, अचेतन परिग्रह आभरणादि, और मिश्र परिग्रह आभरण सहित स्त्री पुत्रादि, साधुकी अपेक्षा सचित्त परिग्रह शिष्यादि, अचित्त परिग्रह पीछी कमंडलु पुस्तकादि, और मिश्र परिग्रह पीछी कमंडलु पुस्तकादि सहित शिष्यादि अथवा साधुके भावोंकी अपेक्षा सचित्त परिग्रह मिथ्यात्व रागादि, अचित्त परिग्रह द्रव्यकर्म नोकर्म, और मिश्र परिग्रह द्रव्यकर्म भावकर्म दोनों मिले हुए । अथवा वीतराग त्रिगुप्तिमें लीन ध्यानी पुरुषकी अपेक्षा सचित्त परिग्रह सिद्धपरमेष्ठीका ध्यान, अचित्त परिग्रह पुद्गलादि पांच द्रव्यका विचार, और मिश्र परिग्रह गुणस्थान मार्गणास्थान जीवसमासादिरूप संसारीजीवका विचार । __इस तरह बाहिरके और अन्तरके परिग्रहसे रहित जो जिनलिंग उसे ग्रहण कर जो अज्ञानी शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत परिग्रहको ग्रहण करते हैं, वे वमन करके पीछे आहार करनेवालोंके समान निन्दाके योग्य होते हैं । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि जो जीव अपने माता, पिता, पुत्र, मित्र, कलत्र इनको छोड़कर परके घर और पुत्रादिकमें मोह करते हैं, अर्थात् अपना परिवार छोड़कर शिष्य-शाखाओंमें राग : करते हैं, वे भुजाओंसे समुद्रको तैरके गायके खुरसे बने हुए गढ़ेके जल में डबते हैं. कैसा है समुद्र, जिसमें जलचरोंके समूह प्रगट हैं, ऐसे अथाह समुद्रको तो बाहोंसे तिर जाता है, लेकिन गायके खुरके जलमें डूबता है । यह बड़ा अचम्भा है । घरका ही सम्बन्ध छोड़ दिया तो पराये पुत्रोंसे क्या राग करना ? नहीं करना ।।६१॥ अथ ये ख्यातिपूजालाभनिमित्तं शुद्धात्मानं त्यजन्ति ते लोहकीलनिमित्त देवं देवकुलं च दहन्तीति कथयति लाहहं कितिहि कारणिण जे सिव-संगु चयंति । खीला-लग्गिवि ते वि मुणि देउलु देउ डहति ॥१२॥ लाभस्य कीर्तेः कारणेन ये शिवसंगं त्यजन्ति । कोलानिमित्तं तेऽपि मुनयः देवकुल देवं दहन्ति ।।१२॥ आगे जो अपनी प्रसिद्धि (वड़ाई) प्रतिष्ठा और परवस्तुका लाभ इन तीनोंके लिए आत्मध्यानको छोड़ते हैं, वे लोहेके कोलेके लिए देव तथा देवालयको जलाते है-- (ये) जो कोई (लाभस्य) लाभ (कीर्तः कारणेन) और कोतिके कारण (शिवसंग पर अथ
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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