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________________ १५६ ] परमात्मप्रकाश राग सर्वज्ञ वे ही निश्चयसे महातीर्थ हैं, उनके समान अन्य तीर्थ नहीं हैं । वे ही संसार के तरनेके कारण परमतीर्थ हैं । जो परम समाधिमें लोन महामुनि हैं, उनके वे हो तीर्थ हैं, निश्चयसे निज शुद्धात्मतत्त्वके ध्यानके समान दूसरा कोई तीर्थ नहीं है, और व्यवहारनयसे तीर्थङ्कर परमदेवादिके गुणस्मरणके कारण मुख्यतासे शुभ वन्धके कारण ऐसे जो कैलास, सम्मेदशिखर आदि निर्वाणस्थान हैं, वे भी व्यवहारमात्र तीर्थ कहे हैं । जो तीर्थ-तीर्थ प्रतिभ्रमण करे, और निज तीर्थका जिसके श्रद्धान परिज्ञान आचरण नहीं हो, वह अज्ञानी है। उसके तीर्थ भ्रमनेसे मोक्ष नहीं हो सकता ।।८।। अथ ज्ञानिनां तथैवाज्ञानिनां च यतीनामन्तरं दर्शयति. णाणिहिं मूढहं मुणिवरहं अंतर होइ महंतु। देहु वि मिल्लइ णाणियउ जीवइभिएणु मुणंतु ।।८६॥ ज्ञानिनां मूढानां मुनिवराणां अन्तरं भवति महत् ।। देहमपि मुञ्चति ज्ञानी जीवाद्भिन्नं मन्यमान: ।।८६॥ आगे ज्ञानी और अज्ञानी यतियोंमें बहुत बड़ा भेद दिखलाते हैं--(ज्ञानिनां) सम्यग्दृष्टि भावलिंगी (मूढानां) मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी (मुनिवराणां) मुनियों में (महत् अंतरं) बड़ाभारी भेद (भवति) है। (ज्ञानी). क्योंकि ज्ञानी मुनि तो (देहं अपि) शरीरको भी (जीवाद्विन्न) जीवसे जुदा (मन्यमानः) जानकर (मुंचति) छोड़ देते हैं, अर्थात् शरीरका भी ममत्व छोड़ देते हैं, तो फिर पूत्र स्त्री आदिका क्या कहना है ? ये तो प्रत्यक्षसे जुदे हैं, और द्रव्यलिंगीमुनि लिंग (भेष) में आत्म-बुद्धिको रखता है। भावार्थ-वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी महामुनि मन वचन काय इन तीनोंसे . अपनेसे भिन्न जानता है, द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्मादिकसे जिसको ममता नहीं है, पिता माता पुत्र कलत्रादिकी तो बात अलग रहे जो अपने आत्म-स्वभावसे निज देहको हो . जुदा जानता है। जिसके परवस्तुमें आत्मभाव नहीं है। और मूढात्मा परभावोंको अपने जानता है । यही ज्ञानी और अज्ञानी में अन्तर है। परको अपना मानें वह बंधता है, और न मानें वह मुक्त होता है। यह निश्चयसे जानना ॥८६॥ एवमेकचत्वारिंशत्रप्रमितमहास्थलमध्ये पञ्चदशसूतिरागम्बसंवेदनज्ञानमुग्न्यायन द्विनीयमन्तरस्थलं समाप्तम् ! तदनन्तरं नत्रैव महाम्थलमध्ये मूत्राष्टकपर्यन्तं परिग्रहत्यागव्याख्यानमुख्यत्वेन तृतीयमन्तरस्थलं प्रारभ्यते । तद्यथा
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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