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________________ १८२] परमात्मप्रकाश जो अणु-मेत्तु वि राउ मणि जाम ण मिल्लइ एत्थु । सो णवि मुच्चइ ताम जिय जाणंतु वि परमत्थु ॥८१॥ यः अणुमात्रमपि रागं मनसि यावत् न मुञ्चति अत्र । स नैव मुच्यते तावत् जीव जानन्नपि परमार्थम् ।।८।। आगे जबतक परमाणुमात्र भी रागको नहीं छोड़ता-धारण करता है, तबतक कर्मोंसे नहीं छूटता, ऐसा कथन करते हैं-(यः) जो जीव -(अणुमात्रं अपि) थोड़ा भी (राग) राग (मनसि) मनमेंसे (यावत्) जबतक (अत्र) इस संसार में (न मुंचति) नहीं छोड़ देता है, (तावत्) तबतक (जीव) हे जीव, (परमार्थ) निज शुद्धात्मतत्त्वको (जानन्नपि) शब्दसे केवल जानता हुआ भी (नव) नहीं (मुच्यते) मुक्त होता । भावार्थ-जो वीतराग सदा आनन्दरूप शुद्धात्मभावसे रहित पंचेन्द्रियोंके विषयोंकी इच्छा रखता है, मनमें थोड़ासा भी राग रखता है, वह आगमज्ञानसे आत्माको शव्दमात्र जानता हआ भो वीतरागचारित्रकी भावनाके बिना मोक्षको नहीं पाता ॥१॥ अथ निर्विकल्पात्मभावनाशून्यः शास्त्रं पठन्नपि तपश्चरणं कुर्वन्नपि परमार्थ न वेचीति कथयति बुझइ सत्थई तउ चरइ पर परमत्थु ण वेइ । ताव ण मुचइ जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ ॥२॥ बुध्यते शास्त्राणि तपः चरति परं परमार्थ न वेत्ति । तावत् न मुच्यते यावत् नैव एनं परमार्थ मनुते ।।२।। आगे जो निर्विकल्प आत्म-भावनासे शून्य है, वह शास्त्रको पढ़ता हुआ मी तथा तपश्चरण करता हुआ भी परमार्थको नहीं जानता है, ऐसा कहते हैं(शास्त्राणि) शास्त्रोंको (वृध्यते) जानता है, (सपः चरति) और तपस्या करता है। (परं) लेकिन (परमार्थ) परमात्माको (नवेत्ति) नहीं जानाता है, (यावत्) और जबतक (एवं) पूर्व कहे हुए (परमार्थ) परमात्माको (नव मनुते) नहीं जानता, या अच्छी तरह अनुभव नहीं करता है, (तावत) तबतक (न मुच्यते) नही छूटता ।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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