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________________ १७८ ] परमात्मप्रकाश आत्मा के जानने से है । यहां शिष्यने प्रश्न किया, कि निदानबन्ध रहित आत्मज्ञान तुमने बतलाया, उसमें निदानबन्ध किसे कहते हैं ? - उसका समाधान – जो देखे सुने और भोगे हुए इन्द्रियोंके भोगोंसे जिसका चित्त रङ्ग रहा है, ऐसा अज्ञानी जीव रूप लावण्य सोभाग्यका अभिलाषी वासुदेव चक्रवर्ती-पदके भोगोंकी वांछा करे, दान पूजा तपश्चरणादिकर भोगोंकी अभिलाषा करे, वह निदानबन्ध है, सो यह बड़ी शल्य ( कांटा ) है । इस शल्यसे रहित जो आत्मज्ञान उसके बिना शब्द - शास्त्रादिका ज्ञान मोक्षका कारण नहीं है । क्योंकि वीतरागस्वसंवेदनज्ञान रहित तप भी दुःखका कारण है । ज्ञान रहित तपसे जो संसारकी सम्पदायें मिलती हैं, वे क्षणभंगुर हैं । इसलिये यह निश्चय हुआ, कि आत्मज्ञानसे रहित जो शास्त्रका ज्ञान और तत्पश्चरणादि हैं, उनसे मुख्यताकर पुण्यका बन्ध होता है । उस पुण्यके प्रभावसे जगत्की विभूति पाता है, वह क्षणभंगुर है । इसलिये अज्ञानियोंका तप और श्रुत यद्यपि पुण्यका कारण है, तो भी मोक्षका कारण नहीं है ||७५ || अथ येन मिथ्यात्वरागादिवृद्धिर्भवति तदात्मज्ञानं न भवतीति निरूपयतितं य-गाणु जि होइ ण वि जेण पवडूढ राउ । दियर - किरणहं पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ ॥ ७६ ॥ तत् निजज्ञानमेव भवति नापि येन प्रवर्धते रागः । दिनकरकिरणानां पुरतः जीव कि विलसति तमोरागः ॥ ७६ ॥ आगे जिससे मिथ्यात्व रागादिककी वृद्धि हो, वह आत्मज्ञान नहीं है, ऐसा निरूपण करते हैं - (जीव) हे जीव, (तत्) वह (निजज्ञानं एव) वीतराग नित्यानंद अखण्डस्वभाव परमात्मतत्त्वका परिज्ञान हो ( नावि) नहीं (भवति) है, (येन) जिससे (रागः) परद्रव्यमें प्रीति ( प्रवर्धते ) बढ़े, (दिनकर किरणानां पुरतः ) सूर्य की किरणों आगे (तमोरागः) अन्धकारका फैलाव ( कि विलसति) कैसे शोभायमान हो सकता है ? नहीं हो सकता | भावार्थ- शुद्धात्मा की भावनासे उत्पन्न जो वीतराग परम आनन्द उसके शत्रु पंचेन्द्रियोंके विषयोंको अभिलाषा जिसमें हो, वह निज (आत्म) ज्ञान नहीं है, ज्ञान ही है | जिस जगह वीतरागभाव है, वही सम्यग्ज्ञान है । इसी बातको दृष्टान्त देकर दृढ़ करते हैं, सो सुनो । हे जीव, जैसे सूर्यके प्रकाशके आगे अन्धेरा नहीं शोभा देता,
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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