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________________ परमात्मप्रकाश [ १७१ चेतनोपयोगियों के ही होता है । शील अर्थात् अपने से अपने आत्मामें प्रवृत्ति करना यह निश्चयशील रागादिके त्यागनेसे शुद्ध भावकी रक्षा करना वह भी निश्चयशील है, और देवाङ्गना, मनुष्यनी तियंञ्चनी, तथा काठ पत्थर चित्रामादिकी अचेतन स्त्री - ऐसे चार प्रकारकी स्त्रियोंका मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनासे त्याग करना, वह व्यवहारशील है, ये दोनों शील शुद्ध चित्तवालों के ही होते हैं । 1 तप अर्थात् वारह तरहका तप उसके बलसे भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्मरूप सब वस्तुओं में इच्छा छोड़कर शुद्धात्मामें मग्न रहना, काम क्रोधादि शत्रुओंके वशमें न होना, प्रतापरूप विजयरूप जितेन्द्री रहना । यह तप शुद्ध चित्तवालोंके ही होता है । दर्शन अर्थात् साधक अवस्था में तो शुद्धात्मामें रुचिरूप सम्यग्दर्शन और केवली अवस्था में उस सम्यग्दर्शनका फलरूप संशय, विमोह, विभ्रम रोहित निज परिणामरूप क्षायिक - सम्यक्त्व केवलदर्शन यह भी शुद्धोंके ही होता है । ज्ञान अर्थात् वीतराग स्वसंवेदनज्ञान और उसका फल केवलज्ञान वह भी शुद्धोपयोगियोंके ही होता है, और कर्मक्षय अर्थात् द्रव्यकर्म भावकर्म और नोकर्मका नाश तथा परमात्मस्वरूपकी प्राप्ति वह भी शुद्धोपयोगियोंके ही होती है । इसलिये शुद्धोपयोग- परिणाम और उन परिणामोंका धारण करनेवाला पुरुष ही जगत् में प्रधान है । क्योंकि संयमादि सर्व गुण शुद्धोपयोग में ही पाये जाते हैं । इसलिये शुद्धोपयोग के समान अन्य नहीं है, ऐसा तात्पर्य जानना । ऐसा ही अन्य ग्रन्थों में हरएक जगह "सुद्धस्स" इत्यादिसे कहा गया है। उसका भावार्थ यह है, कि शुद्धोपयोगीके ही मुनिपद कहा है, और उसीके दर्शन ज्ञान कहे हैं । उसीके निर्वाण है, और वही शुद्ध अर्थात् रागादि रहित है । उसीको हमारा नमस्कार है ।। ६७ ।। मथं निश्चयेन स्वकीयशुद्धभाव एव धर्म इति कथयतिभाउ विसुद्ध अपण धम्मु भणेवि लेहु | उ- गइ दुक्ावहं जो धरइ जीउ पडंतउ एहु ॥ ६८|| - भावो विशुद्धः आत्मीयः धर्मं भणित्वा लाहि । 'चतुर्गतिदुःखेभ्यः यो धरति जीवं पतन्तमिमम् ||६८।। आगे यह कहते हैं कि निश्चयसे अपना शुद्ध भाव ही धर्म है- (विशुद्धः भावः) मिथ्यात्व रागादिसे रहित शुद्ध परिणाम है, वही (आत्मीयः) अपना है, और
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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