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________________ परमात्मप्रकाश ( एकमेव ) एक (ज्ञानमयं ) ज्ञानमय ( शुद्ध पवित्रं भावं) पवित्र शुद्ध भावको छोड़कर अर्थात् इसके सिवाय ज्ञानीको कोई कार्य करना योग्य नहीं है । अथ भावार्थ -पांच इन्द्रियोंके भोगोंकी वांछाको आदि लेकर सम्पूर्ण विभावों से रहित जो केवलज्ञानादि अनन्तगुणरूप परमात्मतत्त्व उसके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न जो परमानन्द परमसमरसीभाव वही हुआ अमृत रस उसके आस्वादसे पूर्ण जो ज्ञानमयोभाव उसे छोड़कर अन्य व्यवहारप्रतिक्रमण प्रत्याख्यान आलोचना के अनुकूल वन्दन निन्दनादि शुभोपयोग विकल्प-जाल हैं, वे पूर्ण ज्ञानीको करने योग्य नहीं है । प्रथम अवस्थामें ही हैं, आगे नहीं है ।।६५॥ and बंदउ दिउ पडिकमउ भाउ असुद्ध जासु । पर तसु संजमु प्रत्थि गवि जं मण-सुद्धि ण तासु ॥ ६६ ॥ [ १६६ चन्दतां निन्दतु प्रतिक्रामतु भावः अशुद्धो यस्य । परं तस्य संयमोऽस्ति नैव यस्मात् मनः शुद्धिर्न तस्य ||६६|| (मुक्त्वा ) आगे इसी बातको दृढ़ करते हैं - (वंदतु निदतु प्रतिक्रामतु) निःशंक वन्दना करो, निन्दा करो, प्रतिक्रमणादि करो लेकिन (यस्य) जिसके (अशुद्ध भावः) जव सक अशुद्ध परिणाम हैं, ( तस्य ) उसके (परं) नियमसे (संयमः ) संयम (नैव अस्ति ) नहीं हो सकता, ( यस्मात् ) क्योंकि ( तस्य ) उसके (मनः शुद्धिः न ) मनकी शुद्धता नहीं है । जिसका मन शुद्ध नहीं, उसके संयम कहांसे हो सकता है ? - भावार्थ – नित्यानन्द एकरूप निज शुद्धात्माको अनुभूतिके प्रतिपक्षी (उलटे ) जो विषय कषाय उनके आधीन आतं रौद्र खोटे ध्यानोंकर जिसका चित्त रङ्गा हुआ है, उसके द्रव्यरूप व्यवहार-वन्दना निदान प्रतिक्रमणादि क्या कर सकते हैं ? जो वह बाह्य क्रिया करता है, तो भी उसके भावसंयम नहीं है । सिद्धान्त में उसे असंयमी कहते हैं । कैसे हैं, वो आर्त रौद्र स्वरूप खोटे ध्यान अपनी बड़ाई प्रतिष्ठा और लाभादि सैंकड़ों मनोरथोंके विकल्पों की मालाके (पंक्ति) प्रपंचकर उत्पन्न हुए हैं । जबतक ये चित्र में हैं, तबतक बाह्य क्रिया क्या कर सकती है ? कुछ नहीं कर सकती ||६६|| एवं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गादिप्रतिपादक द्वितीय महाधिकारमध्ये निश्चयनवेन पुण्यपापद्वयं समानमित्यादिव्याख्यानमुख्यत्वेन चतुर्दशमृत्रस्थलं समाप्तम् | अघानन्तरं शुदो
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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