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________________ १६० ] परमात्मप्रकाश हैं, वे दोनों बातोंसे भ्रष्ट हैं । न तो यती हैं, न श्रावक हैं । वे निंदा योग्य ही हैं। तव उनको दोष ही है, ऐसा जानना ॥५५।। अथ येन पापफलेन जीवो दुःखं प्राप्य दुःखविनाशार्थं धर्माभिमुखो भवति तत्पापमपि समीचीनमिति दर्शयति वर जिय पावई सुदरई णाणिय ताइभणंति । जीवहं दुक्खइजणिवि लहु सिवमइजाइकुणंति ॥५६॥ वरं जीव पापानि सुन्दराणि ज्ञानिनः तानि भणन्ति । . जीवानां दुःखानि जनित्वा लघु शिवमति यानि कुर्वन्ति ।।५६।। आगे जिस पापके फलसे यह जीव नरकादि में दुःख पाकर उस दु:खके दूर करनेके लिये धर्म के सम्मुख होता है, वह पापका फल भी श्रेष्ठ (प्रशंसा योग्य) है, ऐसा दिखलाते हैं-(जीव) हे जीव, (यानि) जो पापके उदय (जीवानां) जीवोंको (दुःखानि जनित्वा) दुःख देकर (लघ) शीघ्र ही (शिवति) मोक्षके जाने योग्य उपायोंमें बुद्धि (कुर्वन्ति) कर देवे, तो (तानि पापानि) वे पाप भी (वरं सुदराणि) बहुत अच्छे हैं, ऐसा (ज्ञानिन.) ज्ञानी (भणंति) कहते हैं । भावार्थ-कोई जीव पाप करके नरक में गया, वहां पर महान दुःख भोगे, उससे कोई समय किसी जीवके सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है । क्योंकि उस जगह सम्यक्त्व की प्राप्तिके तीन कारण हैं । पहला तो यह है, कि तीसरे नरकतक देवता उसे सम्बोधनेको (चेतावनेको) जाते हैं, सो कभी कोई जीवके धर्म सुननेसे सम्यक्त्य उत्पन्न हो जावे, दूसरा कारण-पूर्वभवका स्मरण और तीसरा नरककी पीड़ाकरि दुःखी हुआ नरकको महान दुःखका स्थान जान नरकके कारण जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह और आरम्भादिक हैं, उनको खराव जानके पापसे उदास होवें । तीसरे नरकतक ये तीन कारण हैं। आगेके चौथे, पांचवें, छठे, सातवें नरकमें देवोंका गमन न होनेसे धर्म-श्रवण तो है नहीं, लेकिन जातिस्मरण है, तथा वेदनाकर दुःखी होके पापसे भयभीत होना-ये दो ही कारण हैं । इन कारणोंको पाकर किसी जीवके सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है । इस नयसे कोई भव्य जीव पापके उदयसे खोटी गतिम गया, और वहां जाकर यदि सुलट जावे, तथा सम्यक्त्व पाये, तो वह कुगति भी बहुत श्रेष्ठ है।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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