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________________ परमात्मप्रकाश [ १५५ अगें साधु देहके ऊपर भी राग द्वष नहीं करता- (परममुनिः) महामुनि (देहस्य उपरि) मनुष्यादि शरीरके ऊपर भी (रागमपि द्वष) राग और तुषको (न ___ करोति) नहीं करता अर्थात् शुभ शरीरसे राग नहीं करता, अशुभ शरीरसे द्वेष नहीं करता, (येन) जिसने (आत्मस्वभावः) निजस्वभाव (देहात) देहसे (भिन्नः विज्ञातः) भिन्न जान लिया है । देह तो जड़ है, आत्मा चैतन्य है, जड़ चैतन्यका क्या संबंध ? भावार्थ-इन इन्द्रियोंसे जो सुख उत्पन्न हुआ है, वह दुःखरूप ही है। ऐसा कथन श्रीप्रवचनसारमें कहा है । 'सपरम' इत्यादि । इसका तात्पर्य ऐसा है, कि जो इन्द्रियोंसे सुख प्राप्त होता है, वह सुख दुःखरूप ही है, क्योंकि वह सुख परवस्तु है, निजवस्तु नहीं है, बाधासहित है, निरावाध नहीं है, नाशके लिये हुए हैं, जिसका नाश हो जाता है, बन्धका कारण है, और विषम है । इसलिये इन्द्रियसुख दुःखरूप ही है, ऐसा इस गाथा में जिसका लक्षण कहा गया है, ऐसे देहजनित सुखको मन, वचन, काय, कृत, कारित अनुमोदनासे छोड़े। वीतरागनिर्विकल्पसमाधिके बलसे आकुलता रहित परमसुख निज परमात्मामें स्थित होकर जो महामुनि देहसे भिन्न अपने शुद्धात्मा को जानता है, वही देहके ऊपर राग द्वष नहीं करता। जो सब तरह देहसे निर्ममत्व होकर देहके सुखको नहीं अनुभवता, उसीके लिए यह व्याख्यान शोभा देता है, और देहबुद्धिवालोंको नहीं शोभता ऐसा अभिप्राय जानना ।। ५१।। अथ वित्ति-णिवित्तिहिं परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ। बंधहं हेउ वियाणियउ एयहं जेण सहाउ ॥५२॥ वृत्तिनिवृत्त्योः परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् । बन्धस्य हेतुः विज्ञात: एतयोः येनः स्वभावः ।।५२।। आगे प्रवृत्ति और निवृत्तिमें भी महामुनि राग द्वेष नहीं करता, ऐसा कहते है- (परममुनि) महामुनि (वृत्तिनिवृत्त्योः ) प्रवृत्ति और निवृत्तिमें (रागं अपि द्वेष) राग और द्वषको (न करोति) नहीं करता, (येन) जिसने (एतयोः) इन दोनोंका (स्वभावः) स्वभाव (बंधस्य हेतुः) कर्मवन्धका कारण (विज्ञातः) जान लिया है । भावार्थ-व्रत अवतमें परममुनि राग द्वेष नहीं करता जिसने इन दोनोंका स्वभाव बन्धका कारण जान लिया है । अथवा पाठांन्तर होनेसे ऐसा अर्थ होता है,
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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