SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ परमात्मप्रकाश जांवइ णाणिउ उवसमइ तामइ संजदु होइ । होइ कसायहं वसि गयउ जीउ असंजदु सो ॥४१॥ यावत् ज्ञानी उपशाम्यति तावत् संयतो भवति । भवति कषायाणां वशे गतः जीवः असंयतः स एव ।।४१।। आगे ऐसा कहते हैं कि जिस समय ज्ञानी जीव शान्तभावको धारण करता है, उसी समय संयमी होता है, तथा जब क्रोधादि कषायके वश होता है, तब असंयमी होता है-(यदा) जिस समय (ज्ञानी जीवः) ज्ञानी जीव (उपशाम्यति) शान्तभावको प्राप्त होता है, (तदा) उस समय (संयतः भवति) संयमी होता है, और (कषायाणां) क्रोधादि कषायोंके (वशे गतः) आधीन हुआ (स एव) वही जीव (असंयतः) असंयमी (भवति) होता है । भावार्थ-आकुलता रहित निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुए निर्विकल्प (असली) सुखका कारण जो परम शान्तभाव उसमें जिस समय ज्ञानी ठहरता है, उसी समय संयमी कहलाता है, और आत्मभावनामें परम आकुलताके उपजानेवाले काम क्रोधादिक अशुद्ध भावोंमें परिणमता हआ जीव असंयमी होता है, इसमें कुछ सन्देह नहीं है। ऐसा दूसरी जगह भी कहा है 'अकसायं' इत्यादि । अर्थात् कपायका जो अभाव है, वही चारित्र है, इसलिये कषायके आधीन हुआ जीव असंयमी होता है, और जब कषायोंको शान्त करता है, तब संयमी कहलाता है ।।४।। अथ येन कपाया भवन्ति मनसि तं मोहं त्यजेति प्रतिपादयति जेण कसाय हवंति मणि सो जिय मिल्लहि मोहु । मोह-कसाय-विवजयउ पर पावहि सम-बोहु ।।४२॥ येन कषाया भवन्ति मनसि तं जीव मुञ्च मोहम् । मोह कषायविवजितः परं प्राप्नोषि समवोधम् ।।४२।। आगे जिस मोहसे मनमें कपायें होती हैं, उस मोहको तू छोड़, ऐसा वर्णन करते हैं--(जीव) हे जीव; (येन) जिस मोहसे अथवा मोहके उत्पन्न करनेवाली वस्तुसे (मनसि) मन में (कषायाः) कपाय (भवंति) होवें, (तं मोह) उस मोहको अथवा मोह निमित्तक पदार्थको (मुच) छोड़, (मोहकपायविजितः) फिर मोहको
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy