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________________ १४४ ] आगें जिस समय जितने कालतक रागादि रहित परिणामोंकर निज शुद्धात्मस्वरूपमें तन्मय हुआ ठहरता है, तबतक संवर और निर्जगको करता है, ऐसा कहते हैं - ( मुनिः ) मुनिराज ( यावंतं कालं ) जबतक ( आत्मस्वरूपे निलीनः ) आत्मस्वरूप में लीन हुआ (तिष्ठति) रहता है, अर्थात् वीतराग नित्यानन्द परम समरसीभावकर परि णमता हुआ अपने स्वभाव में तल्लीन होता है, उस समय हे प्रभाकरभट्ट ; ( त्वं) तू (सकलविकल्पविहीनं) समस्त विकल्प समूहों से रहित अर्थात् ख्याति ( अपनी बड़ाई) पूजा ( अपनी प्रतिष्ठा ) लाभको आदि देकर विकल्पोंसे रहित उस मुनिको ( संवर निर्जरा) संवर निर्जरा स्वरूप (जानीहि ) जान । यहांपर भावार्थरूप विशेष व्याख्यान जो कि पहले दो सूत्रोंमें कहा था, वही जानो । इसप्रकार संवर निर्जराका व्याख्यान संक्षेपरूपसे कहा गया है ||३८|| एवं मोक्षमोक्षमार्ग मोक्षफलादिप्रतिपाद कद्वितीयमहा धिकारोक्त वाष्टकेनाभेद रत्नत्रयव्याख्यानमुख्यत्वेन स्थलं समाप्तम् । अत ऊर्ध्वं चतुर्दशसूत्रपर्यन्तं परमोपशमभावमुख्यत्वेन व्याख्यानं करोति । तथाहि परमात्मप्रकाश कम्मु पुरक्किउ सो खबइ अहिरणव पेसु ण देइ । संगु मुवि जो सयलु उवसम भाउ करेइ ॥ ३६ ॥ कर्म पुराकृतं स क्षपयति अभिनवं प्रवेशं न ददाति । संगं मुक्त्वा यः सकलं उपशमभावं करोति ।।३।। 1 इस तरह मोक्ष, मोक्ष मार्ग और मोक्ष फलका निरूपण करनेवाले दूसरे महाधिकार में आठ दोहा-सूत्रोंसे अभेदरत्नत्रय के व्याख्यानकी मुख्यता से अंतरस्थल पूरा हुआ आगे चौदह दोहोंमें परम उपशमभावकी मुख्यतासे व्याख्यान करते हैं(सः) वही वीतराग स्वसवेदन ज्ञानी (पुराकृतं कर्म ) पूर्व उपार्जित कर्मोंको (क्षपर्यात) क्षय करता है, और (अभिनवं ) नये कर्मोंको ( प्रवेशं ) प्रवेश ( न ददाति) नहीं होने देता, (यः) जो कि (सकलं) सब (संग) बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहको (मुक्त्वा) छोड़कर ( उपशमभावं ) परम शान्तभावको (करोति) करता है, अर्थात् जीवन, मरण, लाभ, अलाभ, सुख, दु:ख, शत्रु, मित्र, तृण, कांचन इत्यादि वस्तुओं में एकसा परिणाम रखता है। भावार्थ - जो मुनिराज सकल परिग्रहका छोड़कर सव शास्त्रोंका रहस्य जानके वीतराग परमानन्द सुखरसका आस्वादी हुआ समभाव करता है, वही साधु
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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