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________________ १३६ ] परमात्मप्रकाश जो भत्तउ रयण-त्तयहं तसु मुणि लक्खणु एउ। अप्पा मिल्लिवि गुण-णिलउ तासु वि अण्णु ण झेउ ॥३१॥ यः भक्तः रत्नत्रयस्य तस्य मन्यस्व लक्षणं. एतत् । आत्मानं मुक्त्वा गुणनिलयं तस्यापि अन्यत् न ध्येयम् ॥३१॥ इस प्रकार मोक्ष, मोक्षका फल, मोक्षका मार्ग इनको कहनेवाले दूसरे महाधिकारमें निश्चय व्यवहाररूप निर्वाणके पंथको मुख्यतासे तीन दोहोंमें व्याख्यान किया, और चौदह दोहोंमें छह द्रव्यकी श्रद्धारूप व्यवहारसम्यक्त्वका व्याख्यान किया, तथा दो दोहोंमें सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रका मुख्यतासे वर्णन किया। इस प्रकार उन्नीस दोहोंका स्थल पूरा हुआ। आगे अभेदरत्नत्रयके व्याख्यानकी मुख्यतासे आठ दोहा-सूत्र कहते हैं, उनमें में पहले रत्नत्रयके भक्त भव्यजीवके लक्षण कहते हैं- (यः) जो जीव (रत्नत्रयस्य भक्तः) रत्नत्रयका भक्त है (तस्य) उसका (इदं लक्षणं) यह लक्षण (मन्यस्व) जानना, हे प्रभाकरभट्ट; रत्नत्रय धारकके ये लक्षण हैं। (गुरगनिलयं) गुणों के समूह (आत्मानं मुक्त्वा) आत्माको छोड़कर (तस्यापि अन्यत्) आत्मासे अन्य बाह्य द्रव्यको (न ध्येयं) न ध्यावे, निश्चयसे एक आत्मा ही ध्यावने योग्य है, अन्य नहीं। भावार्थ-व्यवहारनयकर वीतराग सर्वज्ञके कहे हुए शुद्धात्मतत्त्व आदि छह द्रव्य, सात तत्त्व, नो पदार्थ, पदार्थ, पंच अस्तिकायका श्रद्धान जानने योग्य है, और हिंसादि पाप त्याग करने योग्य हैं, व्रत शीलादि पालने योग्य हैं, ये लक्षण व्यवहाररत्नत्रयके हैं, सो व्यवहारका नाम भेद है, वह भेदरत्नत्रय आराधने योग्य है, उसके प्रभावसे निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति है । वीतराग सदा आनन्दरूप जो निज शुद्धात्मा आत्मीक सुखरूप सुधारसके आस्वादकर परिणत हुआ उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप अभेद रत्नत्रय है, उसका जो भक्त (आराधक) उसके ये लक्षण हैं, यह जानो। वे कौनसे लक्षण हैं-यद्यपि व्यवहारनय कर सविकल्प अवस्था में चित्तके स्थिर करने के लिये पंचपरमेष्ठीका स्तवन करता है। जो पंचपरमेष्ठीका स्तवन देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि विभूतिका कारण है, और परम्पराय शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्तिका कारण है, सो प्रथम अवस्थामें भव्यजीवोंको पंचपरमेष्ठी व्यावने योग्य है, उनके आत्माका स्तवन, गुणोंकी स्तुति, वचनसे उनका
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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