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________________ १३४ ] परमात्मप्रकाश आपमें ही है, परमें नहीं है, यद्यपि ये द्रव्य हमेशा से मिल रहे हैं, तो भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते । यहां तात्पर्य यह है, कि व्यवहारसम्यक्त्वके कारण छह द्रव्यों में वीतराग चिदानन्द अनन्त गुणरूप जो शुद्धात्मा है, वह शुभ अशुभ मन वचन काय के व्यापारसे रहित हुआ ध्यावने योग्य है ||२८|| एवमेकोनविंशतिसूत्रप्रमितस्थले निश्चयव्यवहारमोक्षमार्ग प्रतिपादकत्वेन पूर्वसूत्रत्रयं गतम् । इदं पुनरन्तरं स्थलं चतुर्दशसूत्रप्रमितं षड्द्रव्यध्येय भूतव्यवहारसम्यक्त्वव्याख्यानमुख्यत्वेन समाप्तमिति । अथ संशय विपर्ययानध्यवसायरहितं सम्यग्ज्ञानं प्रकटयति जं जह थक्कर दव्वु जिय तं तह जाणइ जो जि । अप्पहं केरउ भावडउ णाणु मुजिहि सो जि ॥२६॥ यदु यथास्थितं द्रव्यं जीव तत् तथा जानाति य एव । आत्मनः संबन्धी भावः ज्ञानं मन्यस्व स एव ||२६| इसप्रकार उन्नीस दोहोंके स्थल में निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गके कथन की मुख्यतासे तीन दोहा कहे । ऐसे चौदह दोहोंतक व्यवहारसम्यक्त्वका व्याख्यान किया, जिसमें छह द्रव्यों का श्रद्धान मुख्य है । आगे संशय विमोह विभ्रम रहित जो सम्यग्ज्ञान है, उसका स्वरूप प्रगट करते हैं -- (जीव) हे जीव; (यत्) ये सब द्रव्य ( यथा स्थितं ) जिस तरह अनादिकालके तिष्ठे हुए हैं, जैसा इनका स्वरूप है, (तत् तथा ) उनको वैसा ही संशयादि रहित ( य एव जानाति ) जो जानता है, ( स एव ) वही ( आत्मनः संबंधीभावः) आत्माका निजस्वरूप (ज्ञानं ) सम्यग्ज्ञान है, ऐसा ( मन्यस्वं ) तू मान । भावार्थ - जो द्रव्य है, वह सत्ता लक्षण है, उत्पाद व्यय श्रीव्यरूप है, और सभी द्रव्य गुण पर्यायको धारण करते हैं, गुण पर्यायके बिना कोई नहीं हैं । अथवा सत्र ही द्रव्य सप्तभङ्गीस्वरूप हैं, ऐसा द्रव्योंका स्वरूप जो निःसन्देश जाने, आप और परको पहचाने, ऐसा जो आत्माका भाव (परिणाम) वह सम्यग्ज्ञान है । सारांश यह है, कि व्यवहारनयकर विकल्प सहित अवस्था में तत्त्वके विचारके समय आप और परका जानपना ज्ञान कहा है, और निश्चयनयकर वीतराग निर्विकल्प समाधिसमय पदार्थका
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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