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________________ १३० ] परमात्मप्रकाश तात्पर्य यह है कि यद्यपि सब द्रव्य एक क्षेत्रावगाहकर रहते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर जीव केवल ज्ञानादि अनंतगुणरूप अपने स्वरूपको नहीं छोड़ते हैं, पुद्गलद्रव्य अपने वर्णादि स्वरूपको नहीं छोड़ता, और धर्मादि अन्य द्रव्य भी अपने अपने स्वरूपको नहीं छोड़ते हैं ॥२५॥ अथ जीवस्य व्यवहारेण शेषपञ्चद्रव्यकृतमुपकारं कथयति, तस्यैव जीवस्य निश्चयेन तान्येव दुःखकारणानि च कथयति एयइ दव्वईदेहियहं णिय-णिय-कज्जु जणंति । चउ-गइ-दुक्ख सहंत जिय तें संसारु भमंति ॥२६॥ एतानि द्रव्याणि देहिनां निजनिजकार्य जनयन्ति । चतुर्गतिदुःखं सहमानाः जीवाः तेन संसारं भ्रमन्ति ॥२६॥ आगे जीवका व्यवहारनयकर अन्य पांचों द्रव्य उपकार करते हैं, ऐसा कहते हैं, तथा उसी जीवके निश्चयसे वे ही दुःखके कारण हैं, ऐसा कहते हैं-(एतानि) ये (द्रव्याणि) द्रव्य (देहिनां) जीवोंके (निजनिजकार्य) अपने अपने कार्यको (जनयंति) उपजाते हैं, (तेन) इस कारण (चतुर्गतिदुःखं सहमानाः जीवाः) नरकादि चारों गतियों के दुःखोंको सहते हुए जीव (संसारं) संसारमें (भ्रमंति) भटकते हैं । भावार्थ-ये द्रव्य जो जीवका उपकार करते हैं, उसको दिखलाते हैं । पुदुगल तो आत्मदानसे विपरीत विभाव परिणामोंमें लीन हए अज्ञानी जीवोंके व्यवहारनयकर शरीर, वचन, मन, श्वासोश्वास, इन चारोंको उत्पत्ति करता है, अर्थात् मिथ्यात्व, अवत, कषाय, रागद्वेषादि विभावपरिणाम हैं, इन विभाव परिणामोंके योगसे जीवके पुद्गलका सम्बन्ध है, और पुद्गलके संबंधसे ये हैं, धर्मद्रव्य उपचरितासद्भत व्यवहारनयकर गतिसहायी है । अधर्मद्रव्य स्थितिसहकारी है, व्यवहारनयकर आकाशद्रव्य अवकाश (जगह) देता है, और कालद्रव्य शुभ अशुभ परिणामोंका सहायी है। इस तरह ये पांच द्रव्य सहकारी हैं। इनका सहाय पाकर ये जीव निश्चय व्यवहाररत्नत्रयकी भावनासे रहित भ्रष्ट होते हुए चारों गतियोंके दुःखोंको सहते हुए संसार में भटकते हैं, यह तात्पर्य हुआ ।।२६।। . अर्थवं पञ्चद्रव्याणां स्वरूपं निश्चयेन दुःखकारणं ज्ञात्वा हे जीव निजगद्धात्मापलम्भलक्षणे मोक्षमार्गे स्थीयत इति निरूपयति
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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