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________________ १२० ] परमात्मप्रकाश भावार्थ-वह लोक छह द्रव्योंसे भरा है, अनादिनिधन है, इस लोकका आदि अन्त नहीं है, तथा इसका कर्ता, हर्ता व रक्षक कोई नहीं है । यद्यपि ये छह द्रव्य व्यवहार सम्यक्त्वके कारण हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतरागसम्यक्त्वका कारण नित्य आनन्द स्वभाव निज शुद्धात्मा ही है ।।१६।। अथ तेषामेव पढ्द्रव्याणां संज्ञां चेतनाचेतनविभागं च कथयतिजीउ सचेयणु दव्वु मुणि पंच अचेयण अण्ण । पोग्गल धम्माहम्मु णहु काले सहिया भिण्ण ॥१७॥ 'जीवः सचेतनं द्रव्यं मन्यस्व पञ्च अचेतनानि अन्यानि । पुद्गलः धर्माधमौं नभः कालेन सहितानि भिन्नानि ॥१७॥ आगे उन छह द्रव्योंके नाम कहते हैं-हे शिष्य, तू (जीवः सचेतनद्रव्यं) जीव चेतनद्रव्य है, ऐसा (मन्यस्व) जान, (अन्यानि) और बाकी (पुद्गलः धर्माधमौ) पुद्गल धर्म अधर्म (नभः) आकाश (कालेन सहिता) और काल सहित जो (पंच) पांच हैं, वे (अचेतनानि) अचेतन हैं और (अन्यानि) जीवसे भिन्न हैं, तथा ये सब (भिन्नानि) अपने-अपने लक्षणोंसे आपसमें भिन्न (जुदा जुदा) हैं, काल सहित छह द्रव्य हैं, कालके बिना पांच अस्तिकाय हैं । भावार्थ-सम्यक्त्व दो प्रकारका है, एक सरागसम्यक्त्व, दूसरा वीतरागसम्यक्त्व ; सरागसम्यक्त्वका लक्षण कहते हैं । प्रशम अर्थात् शान्तिपना, संवेग अर्थात् जिनधर्मकी रुचि तथा जगतसे अरुचि, अनुकंपा परजीवोंको दुःखी देखकर दया भाव और आस्तिक्य अर्थात् देव गुरु धर्मको तथा छह द्रव्योंकी श्रद्धा इन चारोंका होना वह व्यवहारसम्यक्त्वरूप सरागसम्यक्त्व है, और वीतरागसम्यक्त्व जो निश्चयसम्यक्त्व वह निजशुद्धात्मानुभूतिरूप वीतरागचारित्रसे तन्मयी है । यह कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया। हे प्रभो, निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्वका कथन पहले तुमने अनेक बार किया, फिर अब वीतरागचारित्रसे तन्मयी निश्चयसम्यक्त्व है, यह व्याख्यान करते हैं, सो यह तो पूर्वापर विरोध है। क्योंकि जो निज शुद्धात्मा ही उपादेय हैं, ऐसी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व तो गृहस्थमें तीर्थङ्कर परमदेव भरत चक्रवर्ती और राम पांडवादि बड़े-बड़े पुरुषोंके रहता है, लेकिन उनके वीतरागचारित्र नहीं है। यही परस्पर विरोध है । यदि उनके वीतरागचारित्र माना जावे, तो गृहस्थपना क्यों कहा? यह प्रश्न किया । उसका उत्तर श्रीगुरु देते हैं ।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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