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________________ [ १०६ अपने सिर पर रखता है, वह अपनेसे अधिक गुणवाला जानकर ही रखता है । यदि क्षायिक सम्यक्त्व केवलदर्शनादि अनन्त गुण मोक्षमें न होते, तो मोक्ष सबके सिरपर न होता, मोक्षके ऊपर अन्य कोई स्थान नहीं हैं, सबके ऊपर मोक्ष ही है, और मोक्षके आगे अनन्त अलोक है, वह शून्य है, वहां कोई स्थान नहीं है । वह अनन्त अलोक भी सिद्धों के ज्ञानमें भास रहा है । यहां पर मोक्ष में अनन्त गुणोंके स्थापन करनेसे मिथ्यादृष्टियों का खण्डन किया । परमात्मप्रकाश - कोई मिथ्यादृष्टि वैशेषिकादि ऐसा कहते हैं, कि जो बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार इन नत्र गुणोंके अभावरूप मोक्ष है, उनका निषेध किया, क्योंकि इन्द्रियजनित बुद्धिका तो अभाव है, परन्तु केवल बुद्धि अर्थात् केवलज्ञानका अभाव नहीं है, इन्द्रियोंसे उत्पन्न सुखका अभाव है, लेकिन अतीन्द्रिय सुखकी पूर्णता है, दु:ख इच्छा द्व ेष यत्न इन विभावरूप गुणोंका तो अभाव ही है, केवलरूप परिणमन है, व्यवहार धर्मका अभाव ही है, और वस्तुका स्वभावरूप धर्म वह हो है, अधर्मका तो अभाव ठीक ही है, और परद्रव्यरूप-संस्कार सर्वथा नहीं है, स्वभावसंस्कार ही है । जो मूढ इन गुणोंका अभाव मानते हैं, वे वृथा बकते हैं, मोक्ष तो अनन्त गुणरूप है । इस तरह निर्गुणवादियोंका निषेध किया । तथा बौद्धमती जीवके अभावको मोक्ष कहते हैं । वे मोक्ष ऐसा मानते हैं कि जैसे दीपकका निर्वाण ( बुझना ) उसी तरह जीवका अभाव वही मोक्ष है । ऐमी बौद्धकी श्रद्धाका भी तिरस्कार किया । क्योंकि जो जीवका ही अभाव हो गया, तो मोक्ष किसको हुआ ? जीवका शुद्ध होना वह मोक्ष है, अभाव कहना वृथा है । सांख्यदर्शनवाले ऐसा कहते हैं कि जो एकदम सोनेकी अवस्था है, वही मोक्ष है, जिस जगह नं सुख है, न ज्ञान है, ऐसी प्रतीतिका निवारण किया । नैयायिक ऐसा कहते हैं कि जहांसे मुक्त हुआ वहीं पर ही तिष्ठता है, ऊपरको गमन नहीं करता । ऐसे नैयायिक के कथनका लोक-शिखरपर तिष्ठता है, इस वचनसे निषेध किया। जहां वन्धनसे छूटता है, वहां वह नहीं रहता, यह प्रत्यक्ष देखने में आता है, जैसे कैदी कैदसे जब छूटता है, तब बंदीगृह छूटकर अपने घरकी तरफ गमन करता है, वह निजघर निर्वाण ही है । से जैन-मार्ग में तो इन्द्रियजनितज्ञान जो कि मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय हैं, उनका अभाव माना है, और अतीन्द्रियरूप जो केवलज्ञान है, वह वस्तुका स्वभाव है, उसका अभाव आत्मामें नहीं हो सकता 1 स्पर्श, रस, गन्ध, रूप, शब्द इन पांच इन्द्रिय
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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