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________________ [ ६८ ] परम आनन्दरूप शुद्धात्मभाव है, वही सुखी है। क्या करता हुआ यह सुख पाता है कि तीन गुप्तिरूप परमसमाधिमें आरूढ़ हुआ सता ध्यानी पुरुष ही उस सुखको पाता है । अनन्त गुणरूप आत्म-तत्त्वके बिना वह सुख तीनों लोकके स्वामी इन्द्रादिको भी नहीं है । इस कारण सारांश यह निकला कि शिव नामवाला जो निज शुद्धात्मा है, वही राग द्वेष मोहके त्यागकर ध्यान किया गया आकुलता रहित परम सुखको देता है। संसारी जीवोंके जो इन्द्रियजनित सुख है, वह आकुलतारूप है, और आत्मीक अतीन्द्रियसुख आकुलता रहित है, सो सुख ध्यानसे ही मिलता है, दूसरा कोई शिव या ब्रह्मा या विष्णु नामका पुरुष देनेवाला नहीं है । आत्माका ही नाम शिव है, विष्णु है, ब्रह्मा है ।।११६॥ अथ-~ जं मुणि लहइ अणंत-सुहू णिय-अप्पा झार्यतु । तं सुहु इंदु वि णवि लहइ देविहिं कोडि रमंतु ॥११७।। यत् मुनिः लभते अनन्तसुखं निजात्मानं ध्यायन् । तत् सुखं इन्द्रोऽपि नैव लभते देवीनां कोटि रम्यमाणः ।।११७॥ आगे कहते हैं कि जो सुख आत्माको ध्यावनेसे महामुनि पाते हैं, वह सुख इन्द्रादि देवोंको दुर्लभ है-(निजात्मानं ध्यायन) अपनी आत्माको ध्यावता (मुनिः) परम तपोधन (मुनि) (यद् अनन्तसुखं) जो अनन्तसुख (लभते) पाता है, (तत् सुख) उस सुखको (इन्द्रः अपि) इन्द्र भी (देवीनां कोटिं रम्यमाणः) करोड़ देवियों के साथ रमता हुआ (नैव) नहीं (लभते) पाता। भावार्थ-बाह्य और अन्तरङ्ग परिग्रहसे रहित निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ जो वीतराग परमानन्द सहित महामुनि जो सुख पाता है, उस सुखको इन्द्रादिक भी नहीं पाते । जगत्में सुखी साधु ही हैं, अन्य कोई नहीं । यही कथन अन्य शास्त्रोंमें भी कहा है-"दह्यमाने इत्यादि" इसका अर्थ ऐसा है कि महामोहरूपी अग्निसे जलते हुए इस जगत्में देव मनुष्य तिर्यञ्च नारकी सभी दुःखी हैं, और जिनके तप ही धन है, तथा सब विषयोंका सम्बन्ध जिन्होंने छोड़ दिया है, ऐसे साधु मुनि ही इस जगत्में सुखी हैं ।।११७॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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