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________________ [ ६६ ] अथ वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरन्तर्मुहूर्तेनापि कर्मजालं दहतीति ध्यानसामर्थ्य दर्शयति जइ णिविसद्ध वि कु वि करइ परमप्पइ अणुराउ । अग्गि-कणी जिम कट्ठ-गिरी डहइ असेसु वि पाउ ॥११४॥ यदि निमिषार्धमपि कोऽपि करोति परमात्मनि अनुरागम् । अग्निकणिका यथा काष्ठगिरिं दहति अशेषमपि पापम् ।।११४॥ आगे एक अन्तर्मुहूर्तमें कर्म-जालको वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप अग्नि भस्म कर डालती है ऐसी समाधिकी सामर्थ्य है, वही दिखाते हैं-(यदि) जो (निमिषार्धमपि) आधे निमेषमात्र भी (कोऽपि) कोई (परमात्मनि) परमात्मामें (अनुराग) प्रीतिको (करोति) करे तो (यथा) जैसे (अग्निकणिका ) अग्निकी कणी ( काष्ठगिरि ) काठके पहाड़को (दहति ) भस्म करती है, उसी तरह (अशेषं अपि पापं ) सब ही पापोंको भस्म कर डाले । भावार्थ-ऋद्धिका गर्व, रसायनका गर्व अर्थात पारा वगैरह आदि धातुओंके भस्म करनेका मद, अथवा नौ रसके जाननेका गर्व, कवि-कलाका मद, बादमें जीतनेका मद, शास्त्रकी टीका बनानेका मद, शास्त्रके व्याख्यान करनेका मद, ये चार तरहका शब्दगौरव-स्वरूप इत्यादि अनेक विकल्प-जालोंका त्यागरूप प्रचण्ड पवन उससे प्रज्वलित हुई (दहकती हुई) जो निज शुद्धात्मतत्व के ध्यानरूप अग्निकी कणो है, जैसे वह अग्नि को कणी काठके पर्वतको भस्म कर देती है, उसी तरह यह समस्त पापोंको भस्म कर डालती है, अर्थात् जन्म-जन्मके इकटू किये हए कर्मोको आधे निमेषमें नष्ट कर देती है, ऐसी शुद्ध आत्म-ध्यानकी सामर्थ्य जानकर उसी ध्यानकी ही भावना सदा करनी चाहिये ।।११४॥ अथ हे जीव चिन्ताजालं मुक्त्वा शुद्धात्मस्वरूपं निरन्तरं पश्येति निरूपयति मेल्लिवि सयल अवक्खडी जिय णिचिंतउ होइ । चित्तु णिवेसहि परमपए देउ णिरंजणु जोइ ॥११५।। मुक्त्वा सकलां चिन्तां जीव निश्चिन्तः भूत्वा । चित्त निवेशय परमपदे देवं निरञ्जनं पश्य ।।११५।।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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