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________________ [ ६४ ] उसका समाधान इस तरह है - कि जैसा निर्विकल्पशुक्लध्यान वज्रवृषभ नाराचसंहननवालोंको चौथे कालमें होता है, वैसा अब नहीं हो सकता । ऐसा ही दूसरे ग्रन्थोंमें कहा है- "अत्रेत्यादि" इसका अर्थ यह है, कि श्रीसर्वज्ञवीतरागदेव इस भरतक्षेत्र में इस पंचमकाल में शुक्लध्यानका निषेध करते हैं, इस समय धर्मध्यान हो सकता है, शुक्लध्यान नहीं हो सकता । उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी दोनों ही इस समय नहीं हैं, सातवां गुणस्थानतक गुणस्थान है, ऊपरके गुणस्थान नहीं है । इस जगह तात्पर्य यह है, कि जिस कारण परमात्मा के ध्यानसे अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष होता है, इसलिये संसारकी स्थिति घटानेके वास्ते अब भी धर्मध्यानका आराधन करना चाहिये, जिससे परम्परया मोक्ष भी मिल सकता है ||७|| अथ यस्य वीतरागमनसि शुद्धात्मभावना नास्ति तस्य शास्त्रपुराणतपश्चरणानि कि कुर्वन्तीति कथयति अप्पा यि मणि म्मिलउ यिमें वसइ ए जासु । सत्थ- पुराणइ तव चरणु मुक्खु वि करहिं कि तासु ॥ ६८ ॥ आत्मा निजमनसि निर्मलः नियमेन वसति न यस्य । शास्त्रपुराणानि तपश्चरणं मोक्षं अपि कुर्वन्ति किं तस्य ||८|| आगे ऐसा कहते हैं, कि जिसके राग रहित मनमें शुद्धात्माकी भावना नहीं है, उसके शास्त्र पुराण तपश्चरण क्या कर सकते हैं ? अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकते - (यस्य ) जिसके ( निजमनसि ) निज मनमें ( निर्मलः आत्मा ) निर्मल आत्मा ( नियमेन ) निश्चय से ( न वसति) नहीं रहता, ( तस्य ) उस जीवके ( शास्त्रपुराणानि ) शास्त्र पुराण (तपश्चरणमपि ) तपस्या भी (किं) क्या (मोक्षं) मोक्षको (कुर्वन्ति ) कर सकते हैं ? कभी नहीं कर सकते । भावार्थ — वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप शुद्धभावना जिसके नहीं है, उसके शास्त्र पुराण तपश्चरणादि सब व्यर्थ हैं । यहां शिष्य प्रश्न करता है, कि क्या विलकुल ही निरर्थक हैं । उसका समाधान ऐसा है, कि बिलकुल तो नहीं है, लेकिन वीतराग सम्यक्त्वरूप निज शुद्धात्माकी भावना सहित हो, तब तो मोक्षके ही बाह्य सहकारी कारण हैं, यदि वे वीतरागसम्यक्त्व के अभावरूप हों, तो पुण्यबन्धके कारण हैं, और जो मिथ्यात्वरागादि सहित हों, तो पापबन्धके कारण हैं, जैसे कि रुद्र वगैरह विद्यानुवादनामा दशवें पूर्वतक शास्त्र पढ़कर भ्रष्ट हो जाते हैं ||5||
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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