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________________ [ ८० निश्चयसे अपने शुद्धात्मस्वरूपमें स्थिर होनेसे आत्माको संयम कहा गया है, बहिरंग सहकारी निश्चय शीलका कारणरूप जो काल क्रोधादिके त्यागरूप व्रतकी रक्षा वह व्यवहार शील है, और निश्चयनयकर अन्तरङ्गमें अपने शुद्धात्मद्रव्यका निर्मल अनुभव वह शील कहा जाता है, सो शीलरूप आत्मा ही कहा गया है, बाह्य सहकारी कारणभूत जो अनशनादि बारह प्रकारका तप है, उससे तथा निश्चयकर अन्तरङ्गमें सब परद्रव्यकी इच्छाके रोकनेसे परमात्मस्वभाव (निजस्वभाव) में प्रतापरूप तिष्ठ रहा है, इस कारण और समस्त विभावपरिणामोंके जीतनेसे आत्मा ही 'तपश्चरण' है, और आत्मा हो निजस्वरूपकी रुचिरूप सम्यक्त्व है, वह सर्वथा उपादेयरूप है, इससे सम्यग्दर्शन आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं है, वीतराग स्वसंवेदनज्ञानके अनुभवसे आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं है, वीतरागसंवेदनज्ञानके अनुभवसे आत्मा ही निश्चयज्ञानरूप है, और मिथ्यात्व रागादि समस्त विकल्पजालको त्यागकर परमात्मतत्वमें परमसमरसीभावके परिणमनसे आत्मा ही मोक्षमार्ग है । तात्पर्य यह है, कि बहिरंग द्रव्येन्द्रिय-संयमादिके पालनेसे अन्तरङ्गमें शुद्धात्माके अनुभवरूप भावसंयमादिकके परिणमनसे उपादेय सुख जो अतीन्द्रियसुख उसके साधकपनेसे आत्मा ही उपादेय है ।।१३।। ___अथ स्वशुद्धात्मसंवित्ति विहाय निश्चयनयेनान्यदर्शनज्ञानचारित्रं नास्तीत्यभिप्राय मनसि संप्रधार्य सूत्रं कथयति अण्णु जि दंसणु अस्थि ण वि अण्णु जि अस्थि ण णाणु । अण्णु जि चरणु ण अस्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु ॥६४|| अन्यद् एव दर्शनं अस्ति नापि अन्यदेव अस्ति न ज्ञानं । अन्यद् चरणं न अस्ति जीव मुक्त्वा आत्मानं जानीहि ॥१४॥ आगे निज शुद्धात्मस्वरूपको छोड़कर निश्चयनयसे दूसरा कोई दर्शन ज्ञान चारित्र नहीं है, इस अभिप्रायको मन में रखकर गाथा-सूत्र कहते हैं-(जीव) हे जीव (आत्मानं) आत्माको (मुक्त्वा) छोड़कर (अन्यदपि) दूसरा कोई भी (दर्शन) दर्शन (न एव ) नहीं है, (अन्यदपि) अन्य कोई (ज्ञानं न अस्ति) ज्ञान नहीं है, (अन्यद् एव चरणं नास्ति) अन्य कोई चरित्र नहीं है, ऐसा (जानीहि) तू जान, अर्थात् आत्मा हो दर्शनज्ञान चारित्र है, ऐसा सन्देह रहित जानो। भावार्थ-यद्यपि छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्त्व, नौ पदार्थका श्रद्धान कार्य-कारणभावसे निश्चयसम्यक्त्वका कारण होनेसे व्यवहारसम्यक्त्व कहा जाता है। -
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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