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________________ काव्य-मार्ग ही माना है, अतएव गुणों के विपर्ययों की कल्पना भी काव्य की परिधि के भीतर ही की है : उदाहरण के लिए प्रसाद का विपर्यय 'क्लिष्ट' कान्ति ( स्वाभाविक वर्णन) का 'अस्वाभाविकता', और सौकुमार्य (कोमल और निष्ठुर वर्णों का रमणीय मिश्रण) का विपर्यय केवल 'स्त्रेण श्रथवा श्रुतिकटु वर्णों का प्रयोग' नहीं माना क्यों कि ये सभी विपर्यय काव्य की परिधि से बाहर पढ जाते । इसके विपरीत उन्होंने काव्य की परिधि के भीतर ही क्रमशः व्युत्पन्न - अर्थात् शास्त्र ज्ञान पर श्राश्रित, अत्युक्ति तथा दीप्ति को ही प्रसाद कान्ति और सौकुमार्य का विपर्यय माना है । इसी कारण अर्थव्यक्ति औदार्य और समाधि के विपर्यय दिये ही नहीं गए क्योंकि उनसे काव्य की हानि हो जाती — उन्हें वैदर्भ और गौड दोनों के लिए समान रूप से श्रावश्यक मान लिया गया है। दण्डी के उपरान्त तो वामन द्वारा रीति सम्प्रदाय की स्थापना हो ही जाती है । उनके विवेचन के फल-स्वरूप रीति का स्वरूप, आधार, क्षेत्र, प्रकार आदि का निर्धारण हो जाता है । रीति को परिभाषा और स्वरूप रीति का अर्थ :- रीति शब्द का प्रयोग सबसे पहले वामन ने किया है। जैसा कि भोज ने अपनी परिभाषा में स्पष्ट किया है रीति शब्द रोड् धातु से बना है— इसका व्युत्पत्ति-अर्थ है गति, मार्ग या प्रस्थान, और रूढ अर्थ है पद्धति, विधि श्रादि । वामन से पूर्व दण्डी ने और वामन के उपरान्त कुन्तक आदि ने रोति के लिए मार्ग शब्द का ही प्रयोग किया है । परिभाषा :- वामन से पूर्व यद्यपि भामह और दण्डी ने रीति की लक्षण या परिभाषा इस प्रकार रोति चर्चा की है, परन्तु उन दोनों में से किसी ने भी रीति का नहीं की । यह कार्य भी सर्व प्रथम वामन ने ही किया । शब्द के प्रथम प्रयोक्ता, रीति के लक्षणकर्ता, और रीति-सम्प्रदाय के संस्थापक वामन ही हैं । श्रतएव रीति का स्वरूप समझने के लिए श्राधार रूप में उनकी ही शब्दावली का श्राश्रय लेना संगत होगा । वामन के अनुसार रीति का अर्थ है विशिष्ट पद-रचना - विशिष्टा पदरचना रीतिः । का० सू० ११२७ । विशिष्ट का अर्थ है गुण-सम्पन्न --विशेषो ( ३७ )
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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