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________________ फिर इसमें चाहे हमें उसके हाथों मौत ही मिले । पर मौतमें हार नहीं है, हार तो भयमें है । मौत तो जीवन-तत्त्वकी प्रतिष्ठामें नियुक्त एक सेविका मात्र ही है। __ हमारे घरकी जो मुन्नी अपनी आँखें मूंद कर समझ लेती है कि वह नहीं रही, असलमें वह हममें से अधिकांशकी बुद्धिको प्रतिनिधि है। न देखना, न होना नहीं है और हम बहुधा इसी चक्करमें पड़े हैं। बुद्धि पग-पग पर हमें बहकाती और फुसलाती है। वह प्रवंचना है, वह भयकी प्रतिक्रिया है । भय उपयोगी है, यदि वह श्रद्धा और प्रार्थनाकी ओर ले जाय । श्रद्धा भयका काट है। भय संहारक है (जैसा कि वह है) यदि वह अस्त्र-शस्त्र और अहंभावकी ओर ले जाता है। हम जान रखें कि एक साहस है जो भयमेंसे उपजता है। वह आवेशयुक्त, ज्वराक्रान्त और पर्याप्तसे अधिक तीखा होता है । वह दूसरेको डराकर अपनेको साहस सिद्ध करता है। वह चमत्कृत भयका प्रतिरूप है। हमारी बुद्धि भी अहंजन्य भीरु साहसिकताको अपनाती और पोसती है; पर वह साहस सस्ती चीज़ है और नकली है। वैसी साहसिकता भीरता नहीं भी हो तो प्रमत्तता अवश्य है। शराब पीकर जो दुर्बल बड़ी डींगें हाँकता है, वह डोंगें उसकी उस दुर्बलताको ही व्यक्त करती हैं। कृपया कोई उन्हें वल न समझे। हमारी बुद्धि बड़ी ठगिनी है। क्षीण-शक्ति पुरुप क्यों शराबकी ओर जाता है ? इसीलिए कि वह अपनेको ठगना चाहता है । नहीं तो अपनी ही क्षीणता उसे असह्य होती है। कुछ देर तकके लिए क्यों न हो वह अपनेसे बचनेके लिए नशेका सहारा पकड़ता है। बुद्धि हमें बताती है कि हम हम हैं और वह अमुक हमारा २२०
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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