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________________ निरा अ-बुद्धिवाद चित्त चाहिए और अन्वयकी शक्तिके लिए समन्वयकी साधना चाहिए। मुझे इसमें बहुत संदेह है कि वह बुद्धि जो चारों ओर जाती है, किसी भी ओर दूर तक जा सकती है । मुझे इसमें भी बहुत सन्देह है कि जिसको श्रद्धाका संयोग प्राप्त नहीं है, वह बुद्धि कुछ भी फल उत्पन्न कर सकती है, बुद्धि अपने आपमें बन्ध्या है। वह भयमसे उपजी है और भयाश्रित बुद्धि लगभग शुतुरमुर्ग-जैसी है। उससे निस्सन्देह मदद बहुत भी मिलती है। उसकी मददसे व्यक्ति थोड़ी बहुत निर्भयता भी सम्पादन करता है; पर वह अंततः मनको उठाती नहीं है और स्वयं भी विकारहीन नहीं है। किसी बृहत्तर अज्ञेयमे अपनेको गाड़ देनेसे हम अपनेक संकुचित नहीं बनाते। अपनी बुद्धिके भीतर रत रहनेसे जैसे हम हव होते हैं उसी भॉति श्रद्धापूर्वक विराट् सत्ताके प्रति समर्पित हो रहनेसे हम मुक्तिकी ओर बढ़ते हैं। धर्म, आदर्श, बलिदान आदिकी भावनाएँ मनुष्यकी इसी प्रकार अभ्युदय स्वर्तिका फल है और वह इन भावनाओंद्वारा अपने ही घरेसे ऊँचा उठता है। शुतुरमुर्गकी कथा मनुष्यपर ज्योंकी त्यों लागू है, अगर वह भयको जीतनेके लिए अपनी भयाक्रान्त धारणाओमें ही दुबकता है। साधारणतया हम उस कथाके उदाहरणके प्रयोगसे बाहर नहीं होते । लेकिन हम बहुत कुछ बाहर हो जाते हैं जब कि अपने बचावकी चिन्ता नही करते प्रत्युत् ( मालूम होनेवाले ) शत्रुके सम्मुख बढ़ चलते हैं। शत्रुको जब हम अपनेसे मिच देखते ही नहीं और उससे भागनेकी जरूरत नहीं समझते, तब हमारी बुद्धि स्वस्थ रहती है । तब हम धीर, प्रसन्न, प्रेम भावसे उसे अपनाते है। २१९
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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