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________________ प्रथम परिच्छेद नाभिरन्त्यकुलकरः"-हकार आदि को नीति तीर्थङ्करपितनाम से जो अन्यायियों को दण्ड देवे है सो नाभि-अन्तिम कुलकर। दूसरी मध्यम और तोसरी उत्कृष्ट अर्थात् स्वल्प अपराध में पहिली से, मध्यम अपराध में दूपरी से और उत्कृष्ट अपराध में तीसरी से दण्ड दिया जाता था । पहिले तथा दूमर कुलकरके समय में पहली हक्काररूप दण्डनीति का उपयोग किया जाता था । तीसरे और चौथे कुलकर के समय में दूसरी मक्काररूप दण्डनीति का उपयोग होता था । पाचवे, छठे और सातवें कुलकरके समय में तीसरी दण्डनीति का प्रयोग होता था । यथा: हक्कारे मक्कारे धिक्कारे चेव दण्डनीइउ । पढमाविइयाण पटमा तइयचउत्थाण अहणिवा विइया । पंचमछस्म य सत्तमस्म तइया अहिणवा हु॥ [आ. नि०, गा० १६७, १६८] हक्काो मक्कारो धिक्कारश्चेति कुलकराणा दण्डनीतयः । तत्र प्रथमद्वितीययोः कुलकरयोः प्रथमा हक्कारलक्षणा दण्डनीतिः । तृतीय चतुर्थयोरभिनवा द्वितीया-मक्कारलक्षणा दण्डनीतिः । तथा पंचमषष्ठयोः सप्तमस्य व तृतीया अभिनवा उत्कृष्टा धिक्काराख्या दण्डनीतिः। किमुक्त भवति ? खल्पापराधे प्रथमया मध्यमापराधे द्वितीयया महापराधे तृतीयया च दण्डः क्रियते । एताश्च तिस्रोऽपि लघुमभ्यमोत्कृष्टापराधेषु यथाक्रम प्रवर्तिता इति भावार्थः। [अभि० रा० ३ भाग, पृ० ५९५ के अनुसार]
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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