SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम परिच्छेद २३ सुपार्थ्याभूदिति सुपार्श्व:"-अथवा भगवान के गर्भ में स्थित हुये माता के दोनों पासे बहुत सुन्दर होगये इस कारण से सुपार्श्व। ८-"चन्द्रस्येव प्रभा ज्योत्स्ना सौम्यलेश्याविशेषोऽस्यचन्द्रप्रभः"-चन्द्रमा की तरें है प्रभा-कान्ति-सौम्य लेश्याविशेष इसकी सोचन्द्रप्रभ । तथा "गर्भस्थे देव्याश्चन्द्रपानदोहदोऽभूदिति चन्द्रप्रभः"-गर्भ में जब भगवान थे तब माता को चन्द्रमा पीने का दोहद उत्पन्न हुआ था, इस कारण से चन्द्रप्रभ । ___E-"शोभनो विधिविधानमस्य-सुविधिः"-भली है विधि इसकी सो सुविधि । “यद्वा गर्भस्थे भगवति जनन्यप्येवमिति सुविधिः" अथवा गर्भ में भगवान के रहने से माता भी शोभनीक विधिवाली होती भई, इस कारण से सुविधि। १०-"सकलसत्वसन्तापहरणाच्छीतलः"-सर्व जीवों का संताप हरने से शीतल । तथा "गर्भस्थे भगवति पितुः पूर्वोत्पन्नाचिकित्स्यपित्तदाहोजननीकरस्पर्शादुपशान्त इति शीतलः"भगवन्त के गर्भ में आने से, भगवन्त के पिता के शरीर में पित्तदाह रोग था, वैद्यों से जिसकी शान्ति न हुई परन्तु भगवन्त की माता के हाथ का स्पर्श होते ही राजा का शरीर शीतल होगया, इस कारण से शीतल । ११-"श्रेयान समस्तभुवनस्यैव हितकरः, प्राकृत शैल्या
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy