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________________ २२ का सम्भव होने से सम्भव । ४ - " अभिनंद्यते देवेन्द्रादिभिरित्यभिनन्दन ः " - जिनकी स्तुति करी है देवेन्द्रादिकों ने सो अभिनन्दन । "यहां गर्भाप्रभृत्येवाभीक्ष्णं शक्रेणाभिनन्दनादभिनन्दन ः " - अथवा जिस दिन भगवान गर्भ में आये उस दिन से लेके शकेन्द्र के बार बार स्तुति करने से अभिनन्दन । ५ - " शोभना मतिरस्येति सुमतिः" - भली है बुद्धि जिस की सो सुमति । " यद्वा गर्भस्थे जनन्याः सुनिश्चितामतिरभूदिति सुमति:" - अथवा भगवान के गर्भ में आने पर माता की बहुत निर्मल - निश्चित बुद्धि हुई, इस हेतु से सुमति । जैन तत्त्वादर्श ६ - "निष्पङ्कतामङ्गीकृत्य पद्मस्येव प्रभाऽस्येति पद्मप्रभः "विषयतृष्णा कर्म कलङ्क रूप कीचड़ करी रहित पद्म की तरें प्रभा है इसकी सो पद्मप्रभ । " यद्वा पद्मशयनदोहदो मातुर्देवतया पूरति इति पद्मवर्णश्च भगवानिति पद्मप्रभः " -- अथवा पद्मरायन दोहद - दोहला माता को उत्पन्न हुवा सो देवता ने पूरण किया इस कारण से पद्मप्रभ, अरु पद्मकमल सरीखा भगवान के शरीर का वर्ण था इस हेतु से भी पद्मप्रभ । ७ - " शोभनौ पाश्र्वावस्येति सुपार्श्वः” - शोभनीक हैं दोनों पासे इसके सो सुपार्श्व । " यद्वा गर्भस्थे भगवति जनन्यपि و * सामान्यार्थः–“संभवन्ति प्रकर्षेण भवन्ति चतुस्त्रिंशदतिशयगुणा यस्मिन्निति संभवः” – जिसमें चौतीस अतिशय प्रकृष्टरूप से पाये जाते है, उसे संभव कहते हैं । [ ० नि० हा ० टी० गा० १०८१ ]
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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