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________________ प्रथम परिच्छेद ग्रन्थों के अनुसार तथा समवायाङ्ग, राजप्रश्नीय प्रमुख शास्त्रों के अनुसार संक्षेप से लिखा है, अन्यथा जिनसहस्रनाम ग्रन्थ में तो एक हजार आठ नाम अन्वयार्थ सहित कहे हैं । सर्व नाम व्युत्पत्ति सहित अर्हन्त परमेश्वर के हैं । सो अर्हन्त पद तो एक और अनादि अनन्त है, परन्तु इस पद के धारक जीव तो अतीत काल में अनन्त हो गये हैं। क्योंकि एक एक उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल में भारतवर्ष में चौवीस चौवीस जीव, अर्हन्त पद को धारकर पीछे सिद्धि पद को प्राप्त 'हो चुके हैं। इस वर्तमान अवसर्पिणी से पिछली उत्सर्पिणी में जो जीव अरिहन्त पद के धारक हुए हैं, तिन के गत चौवीसी के नाम यह हैं:-१. केवलज्ञानी २ निर्वाणी 'तीर्थकर ३. सागर ४. महायश ५. विमलनाथ ६. - सर्वानुभूति ७. श्रीधर ८. दत्त ९. दामोदर १०. सुतेज ११. स्वामी १२. मुनिसुव्रत १३. सुमति १४. शिवगति १५. अस्ताग १६. नेमीश्वर १७. अनिल १८. यशोधर १९. कृतार्थ २०. जिनेश्वर २१. शुद्धमति २२. शिवकर २३. स्यन्दन २४. सम्प्रति । अथ वर्तमान चौवीस अर्हन्तों के नामः-१. श्रीऋषभनाथ २. श्री अजितनाथ ३. श्री सम्भवनाथ ४. वर्तमान चौवीसी श्री अभिनन्दननाथ ५. श्री सुमतिनाथ १. श्री के तीर्थकर पद्मप्रभ ७. श्री सुपार्श्वनाथ ८. श्री चन्द्रप्रभ ९. श्री सुविधिनाथ अपर नाम पुष्पदन्त १०.
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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