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________________ 456 जैनतत्त्वादर्श हैं। इन बैतालीस भेदों से जीव को शुभाशुभ कर्म की आमदनी होती है। अथ संवरतत्त्व लिखते हैं / पूर्वोक्त प्राश्रव का जो रोकने ___वाला सो संवर है / तिस संवर के सत्तावन संवर तत्त्व का भेद हैं, सो कहते हैं। पांच समिति, तीन स्वरूप गुप्ति, दश प्रकार का यतिधर्म, बारह भावना बावीस परिषह, पांच चरित्र, यह सब मिल कर सत्तावन भेद होते हैं / इनमें से पांच समिति, तीन गुप्ति दशविध यतिधर्म, बारह भावना का स्वरूप गुरु तत्त्वमें लिख आये हैं, वहां से जान लेना। वावीस परिषह का स्वरूप लिखते हैं। 1. क्षुधापरिपह, क्षुधा नाम भूख का है, अन्य वेदनाओं से वावीस परिपह अधिक भूख की वेदना है, जब तुधा लगे,तव अपनी प्रतिज्ञा से न चले, अरु प्रार्तध्यान भी न करे, सम्यक् परिणामों से तुधा को सहे, सो तुत्परिषह / 2. ऐसे ही पिपासा जो तृपा, तिस का परिषह भी जान लेना / 3. शीतपरिपह, जव बड़ा भारी शीत पड़े, तब भी अकल्पित वस्त्र की वांछा न करे / जैसे भी जीर्ण वस्त्र होवें, उनों ही से शीत को सहे, अरु अग्नि भी न तापे, इस रीति से सम्यक् शीत परिषह को सहे / 4. ऐसे ही उष्णपरिषह भी सहे / 5. देशमशकपरिपह, सो देश मशक जव काटे, तव उस स्थान से चले जाने की इच्छा न करे, तथा दंश मशक
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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