SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 498
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम परिच्छेद 455 तथा अजीव को-प्रतिमादि को ताड़े, वींधे, सो स्वाहस्तिकी क्रिया, 17. जीव अजीव की मिथ्या प्ररूपणा करनी, तथा जीव अजीव को मंत्र से मंगवाना, सो आज्ञापनिकी क्रिया / 18. जीव और अजीव को विदारणा, सो वैदारणिकी क्रिया / 18: विना उपयोग से जो वस्तु लेवे, तथा भूमिकादि पर छोड़े, सो अनाभोगिकी क्रिया / 20. इस लोक में और परलोक में विरुद्ध ऐसा जो चोरी परदारागमनादिक है, उनको सेवे, मन में डरे नहीं, सो अनवकांक्षा प्रात्ययिकी क्रिया / 21. मन, वचन, काया का जोसावय-पापसहित व्यापार, सो प्रायोगिकी क्रिया / 22. अष्टविध कर्म परमाणुओं का जो ग्रहण करना, सो समादान क्रिया | 23. राग जनक वीणादि का जो शब्दादिव्यापार, सोप्रेमप्रात्ययिकी क्रिया, 24. अपने ऊपर तथा पर के ऊपर जो द्वेष करना, सो द्वेषप्रात्ययिकी क्रिया। 25. केवल योग से जो क्रिया, सो केवली की ईर्यापथिकी क्रिया / यह पच्चीस क्रिया का स्वरूप संक्षेप मात्र लिखा है / यद्यपि इन क्रियाओं में कितनीक क्रिया आपस में एक सरीखी दीखती हैं, तो भी एक सरीखी नहीं हैं। इन का अच्छी सरें स्वरूप देखना होवे, तो गंधहस्तीभाष्य देख लेना। अथ योग तीन हैं, सो लिखते हैं / 1. मन का व्यापार, सो मनोयोग; 2. वचन का व्यापार, सो वचनयोग; 3. काया का व्यापार, सो काययोग। यह सर्व मिल कर वैतालीस भेद आश्रवतत्त्व के होते
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy