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________________ जैनतत्त्वादर्श दूसरा-द्रव्य से तो उस के पास कौड़ी एक भी नहीं है, परन्तु मन में धन की बड़ी अभिलाषा रखता है, सो भाव परिग्रह है। तथा तीसरे में धन भी पास है, अरु अभिलाषा है, सो द्रव्यभाव करके परिग्रह है। चौथा भङ्ग पूर्ववत् शून्य है। इन सर्व भङ्गों में दूसरा अरु तीसरा भङ्ग निश्चय करके अविरति रूप है । यह पांच प्रकार की अविरति । अब पच्चीस प्रकार की क्रिया का नाम अरु स्वरूप कहते हैं । १. काया करके जो की जावे, पच्चीस क्रियाएँ सो कायिकी क्रिया । २. आत्मा को नरकादि में जाने का जो अधिकारी बनावे, परोपघात करने से वागुरादि गल कूटपाश करके नरकादि रूप अधिकरण को उत्पन्न करे, सो आधिकरणिकी क्रिया । ३. अधिक जो दोष सो प्रदोष-क्रोधादिक, तिन से जो उत्पन्न होवे, सो प्रादोषिकी क्रिया। ४. जीव को परिताप देने से जो उत्पन्न होवे, सो पारितापनिकी क्रिया । ५. प्राणियों के विनाश करने की जो क्रिया, सो प्राणातिपातिकी क्रिया । ६. पृथिवी आदि काया का उपघात करना है लक्षण जिस का, ऐसी जो शुष्क तृणादिच्छेद, लेखनादि क्रिया, सो आरंभिकी क्रिया । ७. विविध उपायों करके धन उपार्जन तथा धनरक्षण करने में जो मूर्छा के परिणाम, उस का गाम परिग्रह, तिन में जो क्रिया उत्पन्न होवे, सो पारिग्रहिकी क्रिया। ८. माया ही है हेतु-प्रत्यय जिस का, मोक्ष के साधनों में
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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