SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४६ पंचम परिच्छेद वास्ते उस को राज से बाहिर ले जावे । तो व्यवहार में उस राजा की उसने आशा भंग रूप चोरी करी है, परन्तु वास्तव में वो चोर नहीं । इसी तरे और जगा में भी जान लेना । यह प्रथम भंग । दूसरे भंग में चोरी तो नहीं करता, परन्तु चोरी करने का मन उस का है, तथा जो भगवान् चीतराग सर्वज्ञ की आज्ञा भंग करने वाला है, सो भी भाव चोर है, यह दूसरा भङ्ग । तथा तीसरे भङ्ग में चोरी भी करता है, अरु मन में भी चोरी करने का भाव है, यह तीसरा भङ्ग है । अरु चौथा भङ्ग तो पूर्ववत् शून्य है। ऐसे ही मैथुन के चार भङ्ग कहते हैं । जो साधु जल में डूबती साधवीको देख कर काढ़ने के वास्ते पकड़े, तथा धर्मी गृहस्थ छत से गिरती अपनी वहिन वेटी को पकड़े, तथा वावरी होकर दौड़ती हुई को पकड़े। यह द्रव्य से मैथुन है, परन्तु भाव से नही, यह प्रथम भङ्ग । तथा द्रव्य से तो मैथुन सेवता नहीं है, परन्तु मैथुन सेवने की अभिलाषा बड़ी करता है, सो भाव से मैथुन है, यह दूसरा भङ्ग । तथा तीसरे भङ्ग में तो द्रव्य अरु भाव दोनो से मैथुन सेवता है । चौथा भङ्ग पूर्ववत् शून्य है। । ऐसे ही परिग्रह के चार भङ्ग कहते हैं । जैसे कोई मुनि कायोत्सर्ग कर रहा है, उस के गले में कोई हारादिक आभूषण गेर-डाल देवे, वो द्रव्य से तो परिग्रह दीखता है, परन्तु भाव से वह परिग्रह नही है, यह प्रथम भङ्ग । तथा
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy