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________________ प्रथम परिच्छेद सर्व वाजित्रों के साथ मिलता शब्द, ६. "दक्षिणत्वम्"-सरलता संयुक्त, ७. "उपनीतरागत्वम्"-मालव, कौशिक्यादि ग्राम, राग संयुक्त । ए सात अतिशय तो शब्द की अपेक्षा से जानना और अन्य अतिशय जो हैं सो अर्थाश्रय जानना । ८."महार्थता"वड़ा-मोटा-जिसमें अभिधेय अर्थात् कहने योग्य अर्थ है, ६. “अव्याहतत्वम्"-पूर्वापर विरोध रहित, १०. "शिष्टत्वम्"अभिमतासेद्धान्तोकायना-एतावता अभिमत सिद्धान्त जो कहना सोइ वक्ता के शिष्टपने का सूचक है, ११. "संशयानामसंभवः"-जिनों के कहने में श्रोता को संशय नहीं होता. १२. "निराकृताऽन्योत्तरत्वम्"-जिनों के कथन में कोई भी दूपण नहीं अर्थात् न तो श्रोता को शंका उत्पन्न होवे न भगवान दूसरी बार उत्तर देवें, १३. "हृदयंगमता"हृदय ग्राह्यत्व-हृदय में ग्रहण करने योग्य, १४. "मिथासाकांक्षता"-परस्पर-आपस में पद वाक्यों का सापेक्षपना, १५. "प्रस्तावौचित्यम्"-देशकाल करके रहितपना नहीं १६. :"तत्त्वनिष्ठता"-विवक्षित वस्तु के स्वरूपानुसारिपना, १७. * जिसमें शुद्ध मंगीत की प्रधानता होती है। + अभिमत सिद्धान्त को कहने वाला, अर्थात् अभिमत सिद्धान्त का प्रतिपादन करना ही वक्ता की शिष्टता का सूचक है । ६ जो देशकाल के अनुसार हो । : विवक्षित विषय के अनुकूल होता है अर्थात् अप्रासङ्गिक नहा होता ।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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